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नसीब सभ्रवाल से प्रेरणा लें भारत से पलायन करने वाले

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 अभी अभी देश ने पूर्ण श्रृद्धा और उल्लास से अपना ६४ वां गणतंत्र दिवस मनाया और ये बात गौर करने लायक है कि ये श्रृद्धा और उल्लास जितना भारत में निवास करने वालों में था उससे कहीं अधिक विदेश में रह रहे भारतीयों में था [आखिरकार ये ही कहना पड़ेगा क्योंकि वैसे भी भारत में रह रहे लोग कुछ ज्यादा ही विदेश में रह रहे भारतीयों के आकर्षण में बंधें हैं ]इसलिए उनके द्वारा मनाया गया भारत का कोई भी पर्व धन्य माना जाना चाहिए और फिर ये तो है ही गर्व की बात कि वे आज भी भारतीय गणतंत्र से जुड़े हैं और इसके प्रति श्रृद्धा रखते हैं भले ही इसके लिए अपना जो योगदान उन्हें करना चाहिए उसे यहाँ की सरकार की,अर्थव्यवस्था की आर्थिक मदद द्वारा सहयोग कर अपने  इस देश के प्रति उसी प्रकार कर्तव्य की इति श्री कर लेते हैं जैसे हम सभी किसी आयोजन चाहे धार्मिक हो या सामाजिक ,पारिवारिक हो या वैवाहिक में अपने पास किसी वस्तु न होने की स्थिति में रूपये /पैसे दे उसकी आपूर्ति  मान लेते हैं .        हम अगर अपने देश से प्रेम करते हैं और इसकी तरक्की के आकांक्षी हैं तो क्या ये सही है कि हम सभी तरह की योग्यता ग्रहण कर मात्र अधिक क

मानवाधिकार व् कानून :क्या अपराधियों के लिए ही बने हैं ?

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मानवाधिकार व् कानून :क्या अपराधियों के लिए ही बने हैं ? Updated on: Tue, 29 Jan 2013 02:28 PM (IST) ।[दैनिक जागरण से साभार ]  आज सारा विश्व मानवाधिकार की राह पर चल रहा है और समस्त विश्व का फौजदारी कानून सबूतों से अपराध साबित होने की राह पर ,भले ही जिन्हें मानव अधिकार दिए जा रहे हैं वे उन्हें पाने के अधिकारी हों या न हों ,भले ही वे सबूत कैसे भी जुटाएं जाएँ इस पर ध्यान देने की कोई ज़रुरत कहीं दिखाई ही नहीं दे रही .दोनों ही स्थितियों का फायदा जितना अपराध करने वाले उठा रहे हैं उतना कोई नहीं .कसाब को फांसी दी जाती है तो किसी को ये  याद नहीं रहता कि इस दरिन्दे ने किस दुर्दांत घटनाक्रम को अंजाम दिया था ?कितने लोगों को मौत के घाट उतारा था ?सभी की जुबान पर ''फांसी की जल्दबाजी ''ही सवाल बन जाती है और मानवीय अधिकार इस कदर हिलोरे  मारते  हैं कि एक बरगी सरकार  का यह कार्य गैर कानूनी लगने लगता है .    सबूत के सही होने पर हम सभी सवाल उठा सकते हैं और उन्हें स्वीकारने वाले कानून पर भी .अपराधी अपराध करता है और उसी समय अपने को कहीं और दिखा देता है और भारतीय कानून सा

विवाहित स्त्री होना :दासी होने का परिचायक नहीं

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  आज जैसे जैसे महिला सशक्तिकरण की मांग जोर  पकड़ रही है वैसे ही एक धारणा और भी बलवती होती जा रही है वह यह कि विवाह करने से नारी गुलाम हो जाती है ,पति की दासी हो जाती है और इसका परिचायक है बहुत सी स्वावलंबी महिलाओं का विवाह से दूर रहना .मोहन भागवत जी द्वारा विवाह संस्कार को सौदा बताये जाने पर मेरे द्वारा आक्षेप किया गया तो मुझे भी यह कहा गया कि एक ओर तो मैं अधिवक्ता होते हुए महिला सशक्तिकरण की बातें  करती हूँ और दूसरी ओर विवाह को संस्कार बताये जाने की वकालत कर विरोधाभासी बातें करती हूँ जबकि मेरे अनुसार इसमें कोई विरोधाभास है ही नहीं .     यदि हम सशक्तिकरण की परिभाषा में जाते हैं तो यही पाते हैं कि ''सशक्त वही है जो स्वयं के लिए क्या सही है ,क्या गलत है का निर्णय स्वयं कर सके और अपने निर्णय को अपने जीवन में कार्य रूप में परिणित कर सके ,फिर इसका विवाहित होने या न होने से कोई मतलब ही नहीं है .हमारे देश का इतिहास इस बात का साक्षी है कि हमारे यहाँ कि महिलाएं सशक्त भी रही हैं और विवाहित भी .उन्होंने जीवन में कर्मक्षेत्र न केवल अपने परिवार को माना बल्कि संसार के रणक्षे

फहराऊं बुलंदी पे ये ख्वाहिश नहीं रही .

फ़िरदौस इस वतन में फ़रहत नहीं रही , पुरवाई मुहब्बत की यहाँ अब नहीं रही . ...................................................................................... नारी का जिस्म रौंद रहे जानवर बनकर , हैवानियत में कोई कमी अब नहीं रही .  .............................................................  फरियाद करे औरत जीने दो मुझे भी , इलहाम रुनुमाई को हासिल नहीं रही . ............................................................................ अंग्रेज गए बाँट इन्हें जात-धरम में , इनमे भी अब मज़हबी मिल्लत नहीं रही .  ..........................................................  फरेब ओढ़ बैठा नाजिम ही इस ज़मीं पर , फुलवारी भी इतबार के काबिल नहीं रही .  ........................................................  लाये थे इन्कलाब कर गणतंत्र यहाँ पर , हाथों में जनता के कभी सत्ता नहीं रही .  .......................................................   वोटों में बैठे आंक रहे आदमी को वे , खुदगर्जी में कुछ करने की हिम्मत नहीं रही .  ..........................................................   इल्

करें अभिनन्दन आगे बढ़कर जब वह समक्ष उपस्थित हो .

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  भावनाएं वे क्या समझेंगे जिनकी आत्मा कलुषित हो , अटकल-पच्चू  अनुमानों से मन जिनका प्रदूषित हो . सौंपा था ये देश स्वयं ही हमने हाथ फिरंगी के , दिल पर रखकर हाथ कहो कुछ जब ये बात अनुचित हो . डाल गले में स्वयं गुलामी आज़ादी खुद हासिल की , तोल रहे एक तुला में सबको क्यूं तुम इतने कुंठित हो . देश चला  है प्रगति पथ पर इसमें मेहनत है किसकी , दे सकता रफ़्तार वही है जिसमे ये काबिलियत हो . अपने दल भी नहीं संभलते  कहते देश संभालेंगें , क्यूं हो ऐसी बात में फंसते जो मिथ्या प्रचारित हो . आँखों से आंसू बहने की हंसी उड़ाई जाती है , जज्बातों को आग लगाने को ही क्या एकत्रित हो . गलती भूलों  से जब होती माफ़ी भी मिल जाती है , भावुकतावश हुई त्रुटि पर क्यूं इनपर आवेशित हो . पद लोलुपता नहीं है जिसमे त्याग की पावन मूरत हो , क्यूं न सब उसको अपनालो जो अपने आप समर्पित हो . बढें कदम जो देश में अपने करने को कल्याण सभी का , करें अभिनन्दन आगे बढ़कर जब वह समक्ष उपस्थित हो . हाथ करें मजबूत उन्ही के जिनके हाथ हमारे साथ , करे ''शालिनी ''प्रेरित सबको आओ हम संयोजित हों .        

कलम आज भी उन्हीं की जय बोलेगी ......

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कलम आज भी उन्हीं की जय बोलेगी ...... आर.एन.गौड़ ने कहा है -    ''जिस देश में घर घर सैनिक हों,जिसके देशज बलिदानी हों.      वह देश स्वर्ग है ,जिसे देख ,अरि  के मस्तक झुक जाते हों .'' सही कहा है उन्होंने ,भारत देश का इतिहास ऐसे बलिदानों से भरा पड़ा है .यहाँ के वीर और उनके परिवार देश के लिए की गयी शहादत  पर गर्व महसूस करते हैं .माताएं ,पत्नियाँ और बहने स्वयं अपने बेटों ,पतियों व् भाइयों के मस्तक पर टीका लगाकर रणक्षेत्र में देश पर मार मिटने के लिए भेजती रही हैं और आगे भी जब भी देश मदद के लिए पुकारेगा तो वे यह ही करेंगीं किन्तु वर्तमान में भावनाओं की नदी ने एक माँ व् एक पत्नी को इस कदर व्याकुल कर दिया कि वे देश से अपने बेटे और पति की शहादत की कीमत [शहीद हेमराज का सिर]वसूलने को ही आगे आ अनशन पर बैठ गयी उस अनशन पर जिसका आरम्भ महात्मा गाँधी जी द्वारा देश के दुश्मनों अंग्रेजों के जुल्मों का सामना करने के लिए किया गया था और जिससे वे अपनी न्यायोचित मांगे ही मनवाते थे .           हेमराज की शहादत ने जहाँ शेरनगर [मथुरा ]उत्तर प्रदेश का सिर  गर्व  से ऊँचा किया वहीँ हेमराज की पत्नी

दामिनी की मूक शहादत :

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दामिनी की मूक शहादत जुर्म मेरा जहाँ में इतना बन नारी मैं जन्म पा गयी , जुर्रत पर मेरी इतनी सी जुल्मी दुनिया ज़ब्र पे आ गयी . जब्रन मुझपर हुक्म चलकर जहाँगीर ये बनते फिरते , जांनिसार ये फितरत मेरी जानशीन इन्हें बना गयी . जूरी बनकर करे ज़ोरडम घर की मुझे जीनत बतलाएं , जेबी बनाकर जादूगरी ये जौहर मुझसे खूब करा गयी . जिस्म से जिससे जिनगी पाते जिनाकार उसके बन जाएँ , इनकी जनावर करतूतें ही ज़हरी बनकर मुझे खा गयी . जांबाजी है वहीँ पे जायज़ जाहिली न समझी जाये , जाहिर इनकी जुल्मी हरकतें ज्वालामुखी हैं मुझे बना गयी . बहुत सहा है नहीं सहूँगी ,ज़ोर जुल्म न झेलूंगी , दामिनी की मूक शहादत ''शालिनी''को राह दिखा गयी . दैनिक  जनवाणी में प्रकाशित                                             शब्दार्थ  :-जुर्म -अपराध ,जुर्रत-साहस  ,ज़ब्र -जुल्म ,जब्रन-जबरदस्ती से ,जर्दम-तानाशाही ,जीनत-शोभा ,जिनाकार-परस्त्री गमन करने वाला ,जानवर-जानवर ,जाहिली -मुर्खता ,जेबी-जेब में रखने लायक ,जूरी -पंचों का मंडल ,जहाँगीर-विश्व विजयी, जानशीन-अधिकारी की अनुपस्थिति में उसके पद पर बैठने वा

''ऐसी पढ़ी लिखी से तो लड़कियां अनपढ़ ही अच्छी .''

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ऐसी पढ़ी लिखी से तो अनपढ़ ही अच्छी लड़कियां  दैनिक जागरण के 13 जनवरी 2013 के''झंकार ''में दुर्गेश सिंह के साथ चित्रांगदा सिंह की बातचीत के अंश पढ़े , तरस आ गया चित्रांगदा की सोच पर ,जो कहती हैं -      ''  मुझे कुछ दिनों पहले ही एक प्रैस कांफ्रेंस में एक वरिष्ठ महिला पत्रकार मिली ,उन्होंने मुझसे कहा कि अपनी इस हालत के लिए महिलाएं ही जिम्मेदार हैं ,कौन कहता है उनसे छोटे कपडे पहनने के लिए ?मैं दंग रह गयी इतनी पढ़ी लिखी महिला की यह दलील सुनकर ...........''     दंग तो चित्रांगदा आपको ही नहीं सभी को होना होगा ये सोचकर कि क्या पढ़े लिखे होने का मतलब ये है कि शरीर को वस्त्र विहीन कर लिया जाये ?सदियों पहले मानव सभ्यता की शुरुआत में जैसे जैसे खोजकर कपड़ों  का निर्माण आरम्भ हुआ और मानव ने अपने तन को वस्त्र से ढंकना आरम्भ किया नहीं तो उससे पहले तो मनुष्य नंगा ही घूमता था देखिये ऐसे -   और आज की लड़कियां अपने तन की नुमाइश कर आदि काल की  ओर खिसकती जा रही हैं और समझ रही हैं खुद की अक्ल से खुद को आधुनिक .सही कपडे पहनकर कॉलिज आने वाली छात्राओं की हंसी स्वयं कपड़ों के लिए

भारत सदा ही दुश्मनों पे हावी रहेगा .

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गूगल से साभार         कितनी ही करो जुर्रतें ये कौल रहेगा , भाई का दिल भाई से ही जुड़ा रहेगा . कितने ही मौके आये देखी हैं आफतें , फिर भी दिलों में अपने ये मल्हार रहेगा . खाएं हैं धोखे तुमसे हमने कदम-कदम पर , सुधरोगे एक दिन कभी विश्वास रहेगा . हमले किये हैं बार-बार पलट-पलटकर , मानोगे हार सिर यहाँ झुककर ही रहेगा . तोड़ी हैं हिम्मतें तेरी वीरों ने हमारे , कटवाने को सिर कारवां बढ़ता ही रहेगा .    अरबों की बात लेखनी से कहती ''शालिनी '', भारत सदा ही दुश्मनों पे हावी रहेगा .                 शालिनी कौशिक                   [कौशल ]

मोहन -मो/संस्कार -सौदा /.क्या एक कहे जा सकते हैं भागवत जी?

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    इंदौर [जागरण न्यूज नेटवर्क]। हाल ही में दुष्कर्म की घटनाओं पर विवादास्पद बयान देकर आलोचना का शिकार हुए संघ प्रमुख मोहन भागवत ने एक और विवादित बयान दिया है। इस बार उन्होंने कहा कि शादी एक कान्ट्रैक्ट यानी सौदा है और इस सौदे के तहत एक महिला पति की देखभाल के लिए बंधी है। उनके इस बयान पर भी लोगों की तीखी प्रक्रिया सामने आई है। भागवत ने इंदौर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की रैली के दौरान कहा, 'वैवाहिक संस्कार के तहत महिला और पुरुष एक सौदे से बंधे हैं, जिसके तहत पुरुष कहता है कि तुम्हें मेरे घर की देखभाल करनी चाहिए और तुम्हारी जरूरतों का ध्यान रखूंगा। इसलिए जब तक महिला इस कान्ट्रैक्ट को निभाती है, पुरुष को भी निभाना चाहिए। जब वह इसका उल्लंघन करे तो पुरुष उसे बेदखल कर सकता है। यदि पुरुष इस सौदे का उल्लंघन करता है तो महिला को भी इसे तोड़ देना चाहिए। सब कुछ कान्ट्रैक्ट पर आधारित है।' भागवत के मुताबिक, सफल वैवाहिक जीवन के लिए महिला का पत्नी बनकर घर पर रहना और पुरुष का उपार्जन के लिए बाहर निकलने के नियम का पालन किया जाना चाहिए। महिला और पुरुष में एक दूसरे का ख्याल रखने

@मोहन भागवत जी-अब और बंटवारा नहीं .

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Is crime against women an issue of 'Bharat' versus 'India'? '' बंटवारे की राजनीति ने देश अपाहिज बना दिया ,     जो अंग्रेज नहीं कर पाए वो हमने करके दिखा दिया -अज्ञात ''  भारत वर्ष एक ऐसा देश जो विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और ये तो भारत संविधान निर्माण के पश्चात् हुआ उससे बहुत सदियाँ पहले से भारत विश्व की विभिन्न संस्कृतियों  का शरणदाता रहा .हमारा इतिहास बहुत सुदृढ़ है और नई पुरानी बहुत सी संस्कृतियों के सम्मिलित होने पर भी इसका अस्तित्व कभी विच्छिन्न नहीं हुआ बल्कि एक विशाल समुंद्र की तरह  और भी विस्तृत होता गया और यही इतिहास कहता है -    ''भारत में वर्तमान में अधिकांश जनसँख्या [आदिवासी को छोड़कर]आर्यों की है .ये भारत के मूल निवासी नहीं हैं .इनके आगमन के बारे में विद्वानों में काफी मतभेद हैं .आधुनिक इतिहासवेत्ताओं के अनुसार इनका मूल निवास उत्तरी-पूर्वी ईरान ,कैस्पियन सागर के समीप क्षेत्र या मध्य एशिया ,यूरोप के आल्पस क्षेत्र में था जबकि दूसरे कुछ इसे अंग्रेजी हुक्मरानों का तर्क बताते हुए आर्यों को यहाँ का मूल निवासी मानते हैं .     वैदि

मरम्मत करनी है कसकर दरिन्दे हर शैतान की

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  मज़म्मत करनी है मिलकर बिगड़ते इस माहौल की , मरम्मत करनी है कसकर दरिन्दे हर शैतान की. हमें न खौफ मर्दों से न डर इन दहशतगर्दों से , मुआफी देनी नहीं है अब मुजरिमाना किसी काम की. मुकम्मल रखती शख्सियत नहीं चाहत मदद की है , मुकर्रम करनी है हालत हमें अपने सम्मान की. गलीज़ है वो हर इन्सां जिना का ख्याल जो रखे , मुखन्नस कर देना उसको ख्वाहिश ये यहाँ सब की. बहुत गम झेले औरत ने बहुत हासिल किये  हैं दर्द , फजीहत करके रख देगी मुकाबिल हर ज़ल्लाद की . भरी है आज गुस्से में धधकती एक वो ज्वाला है , खाक कर देगी ''शालिनी''सल्तनत इन हैवानों की.            शालिनी कौशिक                     [कौशल] शब्दार्थ-मज़म्मत-निंदा ,मरम्मत-शारीरिक दंड ,मुकर्रम-सम्मानित,मशक्कत-कड़ी मेहनत,मुकाबिल -सामने वाला ,गलीज़-अपवित्र,मुखन्नस-नपुंसक,मुकम्मल-सम्पूर्ण ,जिना-व्यभिचार