बेघर बेचारी नारी

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निकल जाओ मेरे घर से

एक पुरुष का ये कहना
अपनी पत्नी से
आसान
बहुत आसान
किन्तु
क्या घर बनाना
उसे बसाना
सीखा कभी
पुरुष ने
पैसा कमाना
घर में लाना
क्या मात्र
पैसे से बनता है घर
नहीं जानता
घर
ईंट सीमेंट रेत का नाम नहीं
बल्कि
ये वह पौधा
जो नारी के त्याग, समर्पण ,बलिदान
से होता है पोषित
उसकी कोमल भावनाओं से
होता पल्लवित
पुरुष अकेला केवल
बना सकता है
मकान
जिसमे कड़ियाँ ,सरिये ही
रहते सिर पर सवार
घर
बनाती है नारी
उसे सजाती -सँवारती है
नारी
उसके आँचल की छाया
देती वह संरक्षण
जिसे जीवन की तप्त धूप
भी जला नहीं पाती है
और नारी
पहले पिता का
फिर पति का
घर बसाती जाती है
किन्तु न पिता का घर
और न पति का घर
उसे अपना पाता
पिता अपने कंधे से
बोझ उतारकर
पति के गले में डाल देता
और पति
अपनी गर्दन झुकते देख
उसे बाहर फेंक देता
और नारी
रह जाती
हमेशा बेघर
कही जाती
बेचारी
जिसे न मिले
जगह उस बगीचे में
जिसकी बना आती वो क्यारी- क्यारी .

शालिनी कौशिक
[कौशल ]

टिप्पणियाँ

kuldeep thakur ने कहा…
दिनांक 24/10/2017 को...
आप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...

कविता रावत ने कहा…
बहुत सुन्दर
नारी से ही ये घर संसार बनता है

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