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लोक अदालत का आज की न्याय व्यवस्था में स्थान

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   राजस्थान हाइकोर्ट द्वारा अपने निर्णय   "श्याम बच्चन बनाम राजस्थान राज्य एस.बी. आपराधिक रिट याचिका नंबर 365/2023" में यह स्पष्ट किया गया है कि लोक अदालतों के फैसले पक्षकारों की आपसी सहमति पर ही दिए जा सकते हैं.      राजस्थान हाईकोर्ट ने माना कि लोक अदालतों के पास कोई न्यायनिर्णय शक्ति नहीं है और केवल पक्षकारों के बीच समझौते के आधार पर अवार्ड दे सकती है। अदालत के सामने यह सवाल उठाया गया कि क्या विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के अध्याय VI के तहत लोक अदालतों के पास न्यायिक शक्ति है या केवल पक्षकारों के बीच आम सहमति पर निर्णय पारित करने की आवश्यकता है। अदालत ने कहा, "उपर्युक्त प्रावधानों का एकमात्र अवलोकन यह स्पष्ट करता है कि जब न्यायालय के समक्ष लंबित मामला (जैसा कि वर्तमान मामले में) को लोक अदालत में भेजा जाता है तो उसके पक्षकारों को संदर्भ के लिए सहमत होना चाहिए। यदि कोई एक पक्ष केवल इस तरह के संदर्भ के लिए न्यायालय में आवेदन करता है तो दूसरे पक्ष के पास न्यायालय द्वारा निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए पहले से ही सुनवाई का अवसर होना चाहिए कि मामला लोक अदालत में भेजने के ल

तुलसीदास का पुरुष अहं भारी

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एक संस्कृत उक्ति है - "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता."       किन्तु केवल पुस्तकों और धर्म शास्त्रों तक ही सिमट कर रह गई है यह उक्ति. सदैव से स्त्री को पुरुष सत्ता के द्वारा दोयम दर्जा ही प्रदान किया जाता रहा है. धर्म शास्त्रों ने पुरुष के द्वारा किसी भी धार्मिक अनुष्ठान को उसकी धर्मपत्नी के अभाव में किए जाने की स्वीकृति नहीं दी और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमने श्री राम द्वारा अश्वमेघ यज्ञ के समय उनके वामांग देवी सीता की विराजमान मूर्ति के रूप में देखा है. हमने अपने बाल्यकाल में गार्गी, अपाला जैसी विदुषियों का मुनि याज्ञवल्क्य जैसे महर्षि से शास्त्रार्थ के विषय में भी पढ़ा है किन्तु धीरे धीरे नारी को दबाने का चलन बढ़ा और इसके लिए ढाल बने महाकवि तुलसीदास, जिन्होंने श्री रामचरितमानस में लिख दिया             "ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी -                       ये सब ताड़न के अधिकारी"        अब तुलसीदास जी के इस लिखे को पढ़े लिखों ने अपने हिसाब से, अनपढ़ों ने अपने हिसाब से, पुरूष समुदाय ने अपने दिमाग से, नारी वर्ग ने अपने दिल से, सभ्य समाज ने सभ्यता की सीमाओं