आधुनिक ससुराल में बहू


बैठी थी इंतज़ार में
सुहाग सेज़ पर
मन में थी उमंग भरी
अनंत मिलन को
देखूंगी आज रूप मैं भी
अपने राम का
नाता बंधा है जिनसे मेरा
जनम जनम का
वो देख निहारेंगे मुझे
सराहेंगे किस्मत
कुदरत का आभार
अभिव्यक्त करेंगे
जानेंगे मुझसे रुचियाँ
सब मेरी ख्वाहिशें
तकलीफें खुशियां खुद की सारी
साझा करेंगे
व्यतीत हो रहा था समय
जैसे प्रतिपल
ह्रदय था डूब रहा
मन टूट रहा था
दरवाजा खुला ऐसे जैसे
धरती हो कांपी
बातों को उसकी सुनके
दिल कांप रहा था
सम्बन्धी था ससुराल का
आया था जो करने
बचने को उससे रास्ते
मन खोज रहा था
आवाज़ थी लगायी उसने
प्राण-प्रिय को
सम्बन्धी फिर भी फाड़ नज़र
ताक रहा था
झपटा वो जैसे बेधड़क
कोमलांगी पर
चाकू दिखाके छोड़ने की
भीख मांग रही थी
जैसे ही हरकतें बढ़ी
उस रावण की अधिक
चाकू को अपने पेट में
वो मार रही थी
जीवन की सारी ख्वाहिशें एक पल में थी ख़त्म ,
भारत की नारी की व्यथा बखान रही थी ,
सुरक्षा ससुराल में करना काम पति का ,
मरके भी फटी आँख वो तलाश रही थी .
......................................................
शालिनी कौशिक
   (कौशल) 

टिप्पणियाँ

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (03-07-2016) को "मिट गयी सारी तपन" (चर्चा अंक-2654) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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