अरे घर तो छोड़ दो
''सियासत को लहू पीने की लत है ,
वर्ना मुल्क में सब खैरियत है .''
महज शेर नहीं है ये ,असलियत है हमारी सियासत की ,जिसे दुनिया के किसी भी कोने में हो ,लहू पीने की ऐसी बुरी लत है कि उसके लिए यह सड़कों से लेकर चौराहों तक, राजमहलों से लेकर साधारण घरों तक भी दौड़ जाती है .उत्तर प्रदेश में इस वक्त नगरपालिका चुनावों की धूम मची है और हर तरफ उम्मीदवारों की लाइन लगी हुई हैं .लगें भी क्यों न आखिर पांच साल में एक बार ही तो ये मौका हाथ लगता है और राजनीति में उतरे हुए लोगों के क्या वारे-न्यारे होते हैं ये तो सभी जानते हैं ,आखिर जिस सरकारी नौकरी के लिए एक आम आदमी कहाँ-कहाँ की ठोकर खाता फिरता है उसे छोड़कर सेवा का नाम लेकर सोने के पालने में झूलने यूँ ही तो बड़े-बड़े तीसमारखाँ यहाँ नहीं आ रहे .
नगरपालिका चुनाव एक तरह से एक जगह पर रहने वाले लोगों के बीच का ही चुनाव होता है इसमें किसी भी बाहरी व्यक्ति का कोई दखल नहीं होता ,पर अब लगता है कि कानून में फेरबदल हो ही जाना चाहिए क्यूंकि राजनीतिक दल विशेष रूप से राष्ट्रीय स्तर के दल भी इसमें टिकट देने लगे हैं और उम्मीदवार जो कि अब तक अपने दम पर खड़े होते थे अब दो एक सालों से चली पूर्ण बहुमत की सरकारों की परंपरा के चलते पार्टी का टिकट लेकर खड़े होने में ही अपनी उम्मीदवारी को सुरक्षित मान रहे हैं जबकि उन्हें खड़े होना उन्हीं के बीच है जिनके साथ वे हर मिनट ,चौबीस घंटे ,पूरे हफ्ते ,महीने व् साल भर रहते हैं .देखा जाये तो इसमें कहीं से लेकर कहीं तक भी किसी राजनीतिक दल के टिकट का कोई महत्व नहीं है और परिणाम होगा भी वही जो सब जानते हैं .जिस उम्मीदवार की छवि अच्छी होगी जो लोगों के सबसे ज्यादा काम आता होगा और लोगों के दुःख-दर्द में साथ निभाता होगा जीतेगा वही .
रोज समाचार पत्र विभिन्न पार्टियों के उम्मीदवारों की सूची जारी कर रहे हैं और इनमे जिन पार्टियों से उम्मीदवार सर्वाधिक टिकट की चाह रख रहे हैं वे है भाजपा और सपा ,क्यूंकि इन राजनीतिक दलों ने उत्तर प्रदेश की जनता को बांटकर रख दिया है और यहाँ सर्वाधिक रहने वाले या तो हिन्दू हैं या मुस्लिम और इसीलिए दो ही दल उनमे प्रमुखता रखते हैं हिन्दुओं के लिए भाजपा और मुसलमानों के लिए सपा, इसलिए उम्मीदवार उसी क्षेत्र का उनके ही बीच का पर अपनी जीत के लिए इन दलों का टिकट पाना ही अपनी जीत की सुरक्षित सीढ़ी मान बैठा है जबकि यहाँ किसी राजनीतिक दल से कोई लेना -देना है ही नहीं .
अभी हाल ही में ग्राम पंचायत के चुनाव हुए थे वहां किसी राजनीतिक दल का कोई नामो-निशान नहीं था क्यूंकि ये हमारे घर का चुनाव है और इसमें कोई बाहरी ये कहे कि आपके घर में रहने वाला ये आदमी /औरत आपका घर सँभालने के लायक है तो क्या कोई भी ये बर्दाश्त करेगा और ऐसे में उस बाहरी की भी क्या इज़्ज़त रह जाएगी ?
ऐसे में सभी बातों पर विचार कर ही हमें अपने घर का मुखिया चुनना चाहिए तब फिर स्पष्ट है कि कम से कम इन चुनावों में तो इन राजनीतिक दलों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए क्यूंकि ये हमारे घर की बात है और हम जानते हैं कि किसे जिताना है भले ही ये दल किसी को अपने हिसाब से हमारे सिर पर बैठाने के कोशिश कर लें लेकिन हम करेंगे तो वही जो हमने ठान रखी है क्यूंकि हम जानते हैं कि ये राजनीतिक दल हमे बाँट सकते है -काट सकते हैं हमें कुछ बनने नहीं दे सकते इसलिए हमारा तो इनसे यही कहना है -
''कैंची से चिरागों की लौ काटने वालों ,
सूरज की तपिश को रोक नहीं सकते .
तुम फूल को चुटकी से मसल सकते हो
लेकिन फूल की खुशबू समेट नहीं सकते .''
शालिनी कौशिक
[कौशल]
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