पुरुष सोच अपवित्र न कि नारी शरीर



   राजनीति का सुनहरा आकाश हो या बिजनेस का चमकीला गगन ,अंतरिक्ष का वैज्ञानिक सफर हो या खेत -खलिहान का हरा-भरा आँगन ,हर जगह आज की नारी अपनी चमक बिखेर रही है ,अपनी सफलता का परचम लहरा रही है .आज घर की दहलीज को पार कर बाहर निकल अपनी काबिलियत का लोहा मनवाने वाली महिलाओं की संख्या में दिन-दूनी रात चौगुनी वृद्धि हो रही है .पुरुषों के वर्चस्व को तोड़ती हुई महिलाएं आज हर क्षेत्र में घुसपैठ कर चुकी हैं और यह घुसपैठ मात्र पाला छूने भर की घुसपैठ नहीं है वरन कब्ज़ा ज़माने की मजबूत दावेदारी है और इसीलिए पुरुषों की तिलमिलाहट स्वाभाविक है .सदियों से जिस स्थान पर पुरुष जमे हुए थे और नारी को अपने पैरों तले रखने की कालजयी महत्वाकांक्षा पाले हुए थे आज वहां की धरती खिसक चुकी है .
 भारत एक धर्म-प्रधान देश है और यहाँ हिन्दू-धर्मावलम्बी बहुतायत में हैं .धर्म यहाँ लोगों की जीवन शैली पर सर्वप्रमुख रूप में राज करता है और धर्म के ठेकेदारों ने यहाँ पुरुष वर्चस्व को कायम रखते हुए धर्म के संरक्षक ,पालनकर्ता आदि  प्रमुख पदों पर पुरुषों को ही रखा और पुरुषों की सोच को ही महत्व दिया .यहाँ नारी को अपवित्र की संज्ञा दी गयी जिससे वह धार्मिक कार्यों से ,अनुष्ठानों से लगभग वर्जित ही कर दी गयी .बृहस्पतिवार व्रतकथा के अंतर्गत नारी को ब्रह्मा जी द्वारा शापित भी बताया गया है , उसमे वर्णन किया गया है -
   ''......इंद्र द्वारा विश्वरूपा का सिर काट दिए जाने पर जब वे ब्रह्म-हत्या के पापी हुए और देवताओं के एक वर्ष पश्चाताप करने पर भी इंद्र का ब्रह्महत्या का पाप न छूटा तो देवताओं के प्रार्थना करने पर ब्रह्माजी बृहस्पति जी के सहित वहां आये ,उस ब्रह्म-हत्या के चार भाग किये जिसका तीसरा भाग स्त्रियों को दिया ,इसी कारण स्त्रियां हर महीने रजस्वला होकर पहले दिन चण्डालनी,दुसरे दिन ब्रह्मघातिनी ,तीसरे दिन धोबिन के समान रहकर चौथे दिन शुद्ध होती हैं ....'' 

 और इसी अशुद्धता को अवलंब बना नारी को धार्मिक क्रियाकलापों से बहिष्कृत की श्रेणी में ला खड़ा किया गया .उसे ''ॐ '' शब्द के उच्चारण से प्रतिबंधित किया गया .सोलह संस्कारों में से केवल विवाह संस्कार ही नारी के लिए रखा गया और वह भी इसलिए क्योंकि यहाँ उसका सम्बन्ध एक पुरुष से जुड़ता है और पुरुष का नारी से मिलन ही उसके इस संस्कार की वजह बना .यह भी संभव था कि यदि पुरुष का पुरुष से ही विवाह हो सकता होता तो नारी इस संस्कार से भी वंचित कर दी जाती .स्त्रियों को उपनयन संस्कार से भी वंचित रखा जाने लगा जिससे उनका अग्निहोत्र व् वेद और स्वाध्याय का अधिकार भी छीन लिया गया .उनके लिए गायत्री मन्त्र -
  ''ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात ''
  का प्रयोग वर्जित कर दिया गया .गायत्री मन्त्र एक अपूर्व शक्तिशाली मन्त्र है , जिसे रक्षा कवच मन्त्र भी कहा गया है ,यह एक वैदिक मन्त्र है ,यह मन्त्र वैज्ञानिक कसौटी पर खरा उतरता है ,विज्ञान भी इस मन्त्र की महत्ता के आगे नतमस्तक रहता है , इस मन्त्र को आज के समाज से पहले स्त्री जाति के लिए बोलना ,सुनना व् पढ़ना दंडनीय अपराध था और अगर कोई स्त्री इसे सुन लेती थी तो उसके कानों में सीसा घोल दिया जाता था ,पढ़ लेती थी तो जीभ काट दी जाती थी ,लिखने पर हाथ काट दिए जाते और पढ़ने पर आँखें निकाल ली जाती  और भले ही आज शिक्षित ,अभिजात्य वर्ग की स्त्रियों को आज ऐसी बर्बरता से मुक्ति मिल चुकी हो किन्तु अशिक्षित ,असभ्य आदिम जातियों की नारियां आज भी पुरुषों की इस बर्बरता की शिकार हैं .
      नारी का रजस्वला होना उसकी अपवित्रता माना गया और कहा गया कि वह इस कारण न तो व्यास गद्दी पर बैठ सकती है [ रामायण पाठ के लिए जिस आसन पर बैठते हैं उसे व्यास गद्दी कहा जाता है ] और जब व्यास गद्दी पर नहीं बैठ सकती तो रामायण पाठ के सर्वथा अयोग्य है और यह चलन तो आज भी कथित आधुनिक ,अभिजात्य व् उच्च शिक्षित घरों में भी प्रचलन में है जहाँ रामायण पाठ आदि के लिए पुरुष ही अधिकारी माने जाते हैं और वे ही रामायण पाठ करते हैं .नारी के लिए उसकी अपवित्रता का बहाना बना उसे यज्ञ ,वेद अध्ययन से वंचित रखा जाता है और कहा जाता है कि वह इतने कठोर नियमों का पालन नहीं कर सकती ,उसके लिए तो घर परिवार की सेवा में ही यज्ञादि का फल निहित है और इस तरह की भावनात्मक बातों में उलझाकर नारी को यज्ञ ,हवन ,वेद अध्ययन ,अंतिम संस्कार ,श्राद्ध कर्म आदि कार्यों से वंचित रखने का प्रयत्न किया गया और किया जा रहा है जबकि इस अपवित्रता की नींव अर्थात नारी का रजस्वला होना और नारी का इन कार्यों का अधिकारी होने की जो सच्चाई व् वास्तविकता है उसे न कभी सामने आने दिया गया और न ही आने देने का कभी प्रयत्न ही किया गया ,जो कि ये है -

मासिक चक्र -डॉ. नीलम सिंह ,गाइनेकोलॉजिस्ट ,वात्सल्या .लखनऊ कहती हैं -

  ''महिलाओं के जीवन की एक आम अहम घटना है मासिक धर्म या पीरियड्स , पर हमारी सांस्कृतिक स्थितियां ऐसी हैं कि इतनी अहम बात को आमतौर पर लड़कियों को बताया नहीं जाता और जब पहली बार

 
उन्हें पीरियड्स का सामना करना पड़ता है ,तो वे अंदर आये इस परिवर्तन को लेकर काफी दिनों तक डरी-डरी रहती हैं .शहरों में पीरियड्स को लेकर लड़कियों और महिलाओं में जो जागरूकता है ,उतनी काफी नहीं है क्योंकि आज भी ग्रामीण इलाकों में इसे छूत माना जाता है .शहरों में भी ऐसा नहीं है कि महिलाएं सार्वजानिक स्थल पर इसके बारे में बात करती हों .'' 
मासिक धर्म को नारी की पवित्रता -अपवित्रता से जोड़ दिए जाने के कारण इस विषय पर बात करने में हिचक महसूस की जाती है जबकि ये महिलाओं की सेहत व् स्वास्थ्य से जुड़ा एक सामान्य चक्र है जिसका असर महिलाओं के हार्मोन्स पर पड़ता है ,उसके स्वभाव पर पड़ता है न की उसके धार्मिक क्रिया कलाप पर .
     मासिक चक्र के बारे में अक्सर महिलाओं की यह धरना होती है की यह एक गन्दा रक्त है और जितना यह शरीर से निकलेगा उतना अच्छा है लेकिन यह बेहद गलत धारणा है .दरअसल मासिक की वजह है गर्भाशय के भीतर एण्डोमीट्रियम लाइन यानि त्वचा की भीतरी दीवार का क्षत होना .यह दीवार जितनी महीन होगी उतना ही रक्तस्राव होगा .इसके कारण शरीर में लौहतत्व की कमी हो जाती है और महिला एनीमिया की शिकार हो सकती है .
क्या है मासिक चक्र -दरअसल मासिक चक्र महिलाओं में एक ऐसा शारीरिक परिवर्तन है जो पूरी तरह से जनन-तंत्र प्रणाली के तहत आता है और प्रजनन के लिए बेहद जरूरी है .हर माह आने वाला मासिक यौवन के आरम्भ और रजोनिवृति के बीच का समय है .मासिक चक्र के दौरान पूर्णतः विकसित महिला के शरीर से डिंबक्षरण के दौरान अंडा निकलता है ,साथ ही गर्भाशय की लाइनिंग ,एण्डोमीट्रियम उसी समय विकसित होती है .डिंबक्षरण के बाद यह लाइनिंग प्रजनित अंडे को तैयार करती है और गर्भधारण होता है .यदि गर्भधारण नहीं हो पाता ,तो एक नया मासिक चक्र होता है .यह एण्डोमीट्रियम और रक्त उत्पादकों का हिस्सा होता है जो योनि के रास्ते बाहर निकलता है . 
Circular flow chart with shiny center with a female figure showing the average number of days days in a menstrual cycle and the period on menstruation and ovulation - stock vector 

आमतौर पर मासिक चक्र औसतन २८ दिन का होता है -
इसके तीन चरण होते हैं -
पहले चरण में माहवारी [एक से पांच दिन तक ]
हार्मोन्स चक्र [६ से १३ दिन तक ]
प्रजनन के लिए उपयुक्त [१४ से २८ ]
     इस प्रकार यह माहवारी पूर्णतः महिलाओं की गर्भधारण की क्षमता से जुड़ा मासिक चक्र है जिसे भारतीय समाज में फैली अशिक्षा ,अज्ञानता व् पुरुष वर्ग की नारी जाति पर आधिपत्य की भावना के कारण पूर्णरूपेण उसके पवित्र-अपवित्र होने से जोड़ दिया गया और परिणामतः उसे धार्मिक क्रियाकलाप से वर्जित की श्रेणी में खड़ा कर दिया गया .नारी जाति द्वारा स्वयं पुरुषों की सोच को ऊपर रखना ,घर गृहस्थी के कार्यों के लिए उनके अधीन होना और अशिक्षित होना भी उसे अपवित्र बनाता चला गया जबकि प्राचीन काल की जो राजसी व् ब्राह्मण कन्यायें थी वे उच्च शिक्षित होने के कारण वे सभी धार्मिक कार्य करती थी जो पुरुष वर्ग किया करता था .कैकयी ,कौशल्या ,सीता ,सावित्री आदि राजवधू व् राजकन्याएँ जहाँ गायत्री मन्त्र का खुले रूप में उच्चारण करती थी वहीं गार्गी ,अपाला ,विदुषी आदि ब्राह्मण कन्यायें भी गायत्री मन्त्र का उच्चारण करती थी .
     हमारी भारतीय सामाजिक संरचना आरम्भ से ही ऐसी रही कि पुरुष घर के बाहर की जिम्मेदारियां सँभालते रहे और महिलाएं घर-परिवार और उससे जुडी जिम्मेदारियां निभाती रही .घर के धार्मिक रीति-रिवाजों में सक्रियता ने महिलाओं को सामाजिक परिवेश में भी धार्मिक रूप से सक्रिय किया .यहाँ भी पुरुषों ने नारी को केवल श्रोता की भूमिका तक सीमित करने का प्रयास करते हुए उसे अशुद्ध शरीर की संज्ञा दी किन्तु नारी ने अपनी आध्यात्मिक सक्रियता और धार्मिक आयोजनों से प्राप्त उच्च ज्ञान को हासिल कर पुरुषों को उनके ही जाल में फंसा दिया और परिणाम यह हुआ कि आज महिलाएं प्रवचन भी दे रही हैं .गृह प्रवेश की पूजा से लेकर शादी और श्राद्धकर्म भी करवा रही हैं यानि अब इस क्षेत्र में भी सामाजिक बेड़ियां टूट रही हैं .पिछले २० सालों में काफी संख्या में महिलाएं पुजारी बन रही हैं .धार्मिक कर्मकांड को उसी कुशलता से करवा रही हैं जिस कुशलता से पिछले कई सालों से पुरुष पुजारी करवाते रहे हैं .लखनऊ की मीनाक्षी दीक्षित ,सावित्री शुक्ला व् सरिता सिंह आदि कुछ ऐसी ही उदाहरण हैं .मीनाक्षी की उम्र तो मात्र २४ साल है और वह कई जगहों पर पूजा पाठ और मुंडन संस्कार ,जन्मदिन संस्कार आदि करवा चुकी है .पुणे स्थित महिला पुजारी मञ्जूषा के अनुसार ,'' धार्मिक रीति रिवाजों में महिलाओं की भूमिका हमेशा से रही है और इसे कोई नकार भी नहीं सकता .''
    भारतीय समाज में आध्यात्मवाद एवं सांसारिकता में समन्वय स्थापित करने का प्रारम्भ से ही प्रयत्न किया गया है .यहाँ त्याग एवं भोग दोनों को ही महत्व दिया गया है .भारतीय संस्कृति में इस बात को विशेष महत्व दिया गया है कि मनुष्य धर्म के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन करे .वह संसार में रहता हुआ त्याग व् भोग की ओर प्रेरित हो और अंत में मोक्ष की प्राप्ति करे .इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर एक क्रमबद्ध जीवन व्यवस्था बानी और परिणाम स्वरुप व्यक्ति का जीवन चार भागों में बाँटा गया जिसे आश्रम व्यवस्था कहा गया और इसी आश्रम व्यवस्था का दूसरा आश्रम है ''गृहस्थाश्रम '' जिसमे एक हिन्दू विवाह संस्कार के पश्चात ही प्रवेश करता है और हिन्दुओं के लिए विवाह एक आवश्यक संस्कार एवं कर्तव्य माना गया है .प्रत्येक गृहस्थ से यह अपेक्षा की जाती है कि वह प्रतिदिन ब्रह्मयज्ञ ,देवयज्ञ एवं नृयज्ञ आदि पांच महायज्ञ करे .यज्ञ में पति एवं पत्नी दोनों का होना आवश्यक है .तैतरीय ब्राह्मण नमक धर्मग्रन्थ में उल्लेख है कि बिना पत्नी के पुरुष को यज्ञ करने का कोई अधिकार नहीं है .अविवाहित पुरुष अधूरा है , पत्नी उसका अर्ध भाग है .मर्यादा पुरुषोत्तम राम जब अश्वमेघ यज्ञ करने लगे तो सीताजी की अनुपस्थिति के कारण वह यज्ञ पूरा करने के लिए उन्हें सीताजी की सोने की प्रतिमा बनानी पड़ी थी .
      यह तो रही नारी के पत्नी रूप में सहयोग की बात पर जब बात मुख्य रीति रिवाज को करने की आती है तो पुरुष आगे आ जाते हैं और इस बात की व्याख्या इस रूप में भी की जाती है कि महिलाएं अशुद्ध होती हैं और धार्मिक अनुष्ठानों को करवाने की क्षमता उनमे नहीं है .वे यह भी कहते हैं कि हिन्दू सनातन धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी सोलह संस्कार यज्ञ से ही प्रारम्भ होते हैं एवं यज्ञ में ही समाप्त हो जाते हैं और यज्ञ कौन करा सकता है इस सम्बन्ध में कई स्थानों पर वर्णित है कि उपनयन संस्कार के पश्चात ही व्यक्ति वेद व् स्वाध्याय का अधिकारी बनता है और तत्पश्चात यज्ञ का अधिकारी और स्त्रियां यज्ञ करने की अधिकारी नहीं मानी जाती क्योंकि न तो उन्हें वेदों के अध्ययन का अधिकार प्राप्त है और न ही वे यज्ञापवीत धारण करती हैं और इसी बात को ध्यान में रख पुणे स्थित महिला पुजारी मञ्जूषा कहती हैं कि -'' यही वजह है कि जब मुझ जैसी महिलाएं इस क्षेत्र में आने लगी तो इसका प्रखर विरोध भी हुआ .''
हिन्दू आर्य समाजियों में सर्वविदित है कि महिलाओं का भी उपनयन संस्कार होता है पर इस तथ्य से भी पुरुषों के नारी विरोध पर लेशमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ता ,वे महिलाओं को अपवित्र व् भावुक कह यज्ञ व् श्राद्ध संस्कार जैसे धार्मिक कार्य कराने के अधिकार को सिरे से ख़ारिज कर देते हैं .उनके अनुसार वे इन कठिन रीतियों को सही तरीके से नहीं निभा सकती .
   पर आज यज्ञ , पूजा-पाठ हो या फिर प्रवचन पुरुषों का वर्चस्व टूट रहा है और नारी को अपवित्र व् कमजोर दिखाने का उनका कुटिल जाल भी क्योंकि आज महिलाएं ये सब काम कर रही हैं ,करा रही हैं .माँ आनंदमूर्ति ,माँ अमृतानंदमयी ,साध्वी ऋतम्भरा ,प्रेमा पांडुरंग ,निर्मल देवी आदि नाम बस उदाहरण मात्र हैं कि कैसे ये साध्वी धर्म और आस्था के क्षेत्र में भी अपनी स्थिति मजबूत कर चुकी हैं .माता अमृतानंदमयी उर्फ़ अम्मा पूरी दुनिया में जादू की झप्पी यानी असीम प्रेम बाँटने वाली अम्मा के नाम से प्रसिद्द हैं .संसार भर से आये असंख्य श्रद्धालु इनकी शरण में आकर अपनी समस्याओं और कष्टों से मुक्ति पाते हैं .साध्वी निर्मला देवी कर्मकांड के विपरीत जीवन को सरल बनाने के लिए सहजयोग का प्रवचन देती हैं .मन्त्र के माध्यम से जीवन को कैसे सुखमय और स्वस्थ बनाया जाये यह उनके प्रवचन का मुख्य आधार है .सभी धर्मों में विश्वास करने वाली आनंदमूर्ति गुरु माँ विभिन्न चैनलों पर प्रवचन देने के साथ साथ देश विदेश में होने वाले धार्मिक आयोजनों में भी हिस्सा लेती हैं .
इसके साथ ही शास्त्रीय मत के हिसाब से महिलाओं का श्राद्धकर्म करना भी वर्जित नहीं है .विशेष परिस्थितियों में वह श्राद्धकर्म कर सकती हैं .पुत्र को वंश का प्रतीक कहा गया है .शास्त्रों के अनुसार पुम् नामक नरक से मुक्ति दिलाने वाले को पुत्र कहा गया है लेकिन बेटी को भी पुत्री कहा गया है इसका स्पष्ट अर्थ है कि बेटी को श्राद्धकर्म से अलग नहीं किया गया है .वह श्राद्धकर्म कर सकती है .गरुड़ पुराण में भी महिलाओं के इस अधिकार को शास्त्रसम्मत माना गया है और इसी का परिणाम है कि आज सोच बदल रही है .प्राचीन काल के समान ही नारी को उसके शास्त्र सम्मत ये अधिकार मिल रहे हैं .आये दिन समाचार पत्रों में बेटी द्वारा अपने माता-पिता के अंतिम संस्कार व् श्राद्ध कर्म करने के समाचार सामने आ रहे हैं .प्रसिद्द नृत्यांगना शोभना नारायण के पिता को जब अग्नि देने का प्रश्न उठा तो माँ ने कहा ,'' शोभना देगी .'' विरोध के स्वर उठे किन्तु इंदिरा गांधी के वहां पहुँचने पर और उनके यह कहने पर कि अग्नि शोभना ही देगी शोभना ने ही पिता की चिता को अग्नि दी और दो दिन बाद उनके फूल चुनने शोभना की छोटी बहन रंजना गयी .
  आज इन महिला पंडितों की इच्छाशक्ति और नारी सशक्तिकरण का ही नतीजा है कि भले ही शंकराचार्य इन्हें मान्यता नहीं दे रहे पर समाज इन्हें स्वीकार रहा है .इनकी शुद्ध चित्तवृत्ति और लगन को पुरुषों की अशुद्ध अपवित्र सोच से ऊपर स्थान मिल रहा है .वर्षों से जिस बहकावे में नारी को घेर और उसे निरक्षर रख घर की चारदीवारी में उसकी सुरक्षा देखभाल को केंद्र बना पुरुषों ने जो उसे कूपमंडूक बनाने की चेष्टा की आज वह निष्फल होती जा रही है .विज्ञान उन्नति कर रहा है .शिक्षा पैर पसार रही है . हर तरफ या कहें चंहु ओर ये उजाला फ़ैल रहा है और सच सामने आ रहा है .
      गर्भधारण महिलाओं को माँ बनने के सौभाग्य स्वरुप प्राप्त होता है और यह नारी को ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त वरदान भी है और मासिक धर्म उसी का एक पूर्व चरण ,जिसे पुरुषों द्वारा महिलाओं के दिलों-दिमाग में उनकी अशुद्धता का एक लक्षण बता कर भर दिया गया.वह पुरुष जिसका शुक्राणु [स्पर्म ] महिला के अंडे [एग ] से मिलता है और जो पुरुषों के वंशवृद्धि का जरिया बनता है उसे महिला के शरीर में धारण करने की क्षमता इस सृष्टि से मिली .नौ महीने कोख में उसे संभलकर रख एक नए जीवन को जन्म दे वह पुरुष द्वारा कमजोर अशुद्ध ठहराई गयी और पुरुष मात्र अपने शुक्राणु का स्थानांतरण कर शुद्धता का फरिश्ता बन गया ,जिसे आज के विज्ञान की तरक्की ने और सृष्टि के आरम्भ से मौजूद हमारे आध्यात्म दोनों ने स्पष्ट रूप से खोलकर रख दिया और बता दिया कि ''अशुद्ध नारी शरीर नहीं बल्कि पुरुष सोच है .''और नारी मन यह जान बस इतना ही कह पाया -
   ''हमीं को क़त्ल करते हैं हमीं से पूछते हैं वो ,
    शहीदे नाज़ बतलाओ मेरी तलवार कैसी है .''

शालिनी कौशिक 
    [कौशल ]

टिप्पणियाँ

Ritu asooja rishikesh ने कहा…
शालिनी जी बिलकुल सही आपका लेख महत्वपूर्ण जानकारी देते है और बिलकुल सत्य होते ।
vijai Rajbali Mathur ने कहा…
आपके लेख में 'हिन्दू आर्य समाजियों में' प्रयुक्त हुआ है। 'हिन्दू' शब्द प्रथम बार बौद्ध मठों-विहारों को उजाड़ने वाले हिंसक समूहों को कहा गया था फिर ईरानियों के भारत आगमन पर उनकी 'फारसी' भाषा की एक गंदी और भद्दी गाली के रूप में यहाँ के निवासियों को हिन्दू कहा गया। जबकि 'श्रेष्ठ मानव ' को 'आर्ष'= 'आर्य' कहा जाता था। आर्यसमाजी कभी भी 'हिन्दू' = हिंसा करने वाला नहीं हो सकता और 'हिन्दू' कभी भी 'आर्य' नहीं हो सकता। लेख में हिन्दू पोंगापंथ को 'वैदिक' आर्य मत का पर्यायवाची मान कर निष्कर्ष लिए गए हैं। पोंगा-हिन्दू (जो धर्म नहीं एक साम्राज्यवादी राजनीतिक प्राणाली है ) ने नारी (न+अरि = जिसका कोई शत्रु न हो ) 'महिला' को हेय बनाया है जिसका उल्लेख लेख में किया गया है। वैदिक आर्य मत का परास्त होना और आज विकृत मानसिकता में हिन्दू पोंगापंथ को 'आर्य' का पर्यायवाची मानना ही महिलाओं की दुरावस्था का हेतु है। यदि प्रस्तुत लेख में ब्राह्मण (हिंदूवाद) का विरोध करने का महिलाओं-नारियों से आह्वान होता और ढोंगवाद का बहिष्कार किया जा सकता तो पुरुष वर्चस्व का प्रश्न ही नहीं खड़ा होता क्योंकि उस पोंगापंथ को महिलाएं ही तो सहेजे हुये हैं । वैज्ञानिक 'वास्तु-शास्त्र' में तो मंदिरों की छाया व उन पर लगी पताकाओं तक की छाया को 'वास्तु-दोष' माना जाता है। 'वस्तु-दोष' भारत का 'भूगोल' है लेकिन आर्य मत में वैदिक विधि से 'वास्तु-हवन' द्वारा इसका समाधान होता रहता था तब भारत 'आर्थिक' रूप से समृद्ध था और 'सोने की चिड़िया ' कहा जाता था। आर्य मत के पतन और हिन्दू पोंगापंथ के 'पुराण वाद' ने भारत को गारत कर दिया। लेख में पौराणिकता को ठुकरा कर आर्य मत के पुनर्वर्चस्व को उठाया जाता तो व्यथित होने का अवसर न आता ।
vishvnath ने कहा…
जबरदस्त लेख। ...... धन्यवाद ऐसी महत्वपूर्ण सारगर्भित लेख के लिए
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "मौत का व्यवसायीकरण - ब्लॉग बुलेटिन" , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
हवा के विपरीत चल मुकाम पाने वाली इन महिलायों को नमन .. उम्दा जानकारी आशा हाई लोगो के विचारो में परिवर्तन आएगा :)
प्रकृति की प्रतिबिम्ब है नारी।
Ritu asooja rishikesh ने कहा…
Shalini ji aap ek bhut badi mahaan lekhika hai aapki Har baat saty ki kasauti par khari.utrti hai .

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मेरी माँ - मेरा सर्वस्व

बेटी का जीवन बचाने में सरकार और कानून दोनों असफल

बदनसीब है बार एसोसिएशन कैराना