.............तभी कम्बख्त ससुराली ,

थी कातिल में कहाँ हिम्मत  ,मुझे वो क़त्ल कर देता  ,        
अगर  मैं  अपने  हाथों  से  ,न  खंजर  उसको  दे  देता  .
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वो  बढ़  जाए  भले  आगे  ,लिए  तलवार  हाथों  में  ,
मिले  न  जिस्म  मेरा  ये  ,क़त्ल  वो  किसको  कर  लेता  .
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बढ़ाते  हैं  हमीं  साहस  ,जुर्म  करने  का  मुजरिम  में  ,
क्या  नटवर  लाल  सबके  घर  ,तिजोरी  साफ़  कर  लेता  .
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जला  देते  हैं  बहुओं  को  ,तभी  कम्बख्त  ससुराली  ,
बेचारी  बेटियों  का  जब  ,मायका साथ  न  देता  .
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कहीं गुंडे नहीं पलते  ,न गुंडागर्दी चलती है  ,
समझकर '' शालिनी '' को जब  ,ज़माना साथ है देता  .
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शालिनी कौशिक
  [कौशल     

टिप्पणियाँ

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23-09-2017) को "अहसासों की शैतानियाँ" (चर्चा अंक 2736) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

@जला देते हैं बहुओं को, तभी कम्बख्त ससुराली,
बेचारी बेटियों का जब, मायका साथ न देता.......
कुछ लोग ऐसे जरूर होते होंगे, पर ज्यातर अच्छे लोगों का प्रतिशत है दुनिया में, सभी को एक ही तराजू पर मत तोलिए। एक बात और, अन्यथा ना लें मायके का ज्यादा दखल भी दाम्पत्य जीवन में खटास घोल देता है !
pushpendra dwivedi ने कहा…
वाह बहुत खूब बेहतरीन रचनात्मक अभिव्यक्ति

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