क्या आज का सच यही है?
एक शेर जो हम बहुत जोर-शोर से गाते हैं-
"खुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं."क्या जानते हैं कि यूं तो ये मात्र एक शेर है किन्तु चंद शब्दों में ये शेर उन शहीदों के मन की भावना को हमारे सामने खोल का रख देता है .वे जो हमें आजादी की जिंदगी देने के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान कर गए यदि आज हमारे सामने अपने उसी स्वरुप में उपस्थित हो जाएँ तो शायद हम उन्हें एक ओर कर या यूं कहें की ठोकर मार कर आगे निकल जायेंगे,कम से कम मुझे आज की भारतीय जनता को देख ऐसा ही लगता है.आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या हो गया जो मुझे इतना कड़वा सच आपके सामने लाना पड़ गया.कल का हिंदी का हिंदुस्तान इसके लिए जिम्मेदार है जिसने अपने अख़बार की बिक्री बढ़ाने के लिए एक ऐसे शीर्षक युक्त समाचार को प्रकाशित किया कि मन विक्षोभ से भर गया.समाचार था "ब्रांड सचिन तेंदुलकर ने महात्मा गाँधी को भी पीछे छोड़ा"ट्रस्ट रिसर्च एड्वयिजरी [टी.आर.ऐ.]द्वारा किये गए सर्वे में भरोसे के मामले में सचिन को ५९ वें स्थान पर रखा गया है और महात्मा गाँधी जी को २३२ वें स्थान पर रखा गया है .सचिन हमारे देश का गौरव हैं.रत्न हैं किन्तु महात्मा गाँधी को पछाड़ना उनके क्या किसी भी भूत,वर्तमान,भविष्य के व्यक्ति के वश में नहीं है.क्या पिता से ऊपर भी कोई हो सकता है?और ये सोचने कि बात है कि क्या महात्मा गाँधी को पिता का दर्जा हमारे भारत देश ने ऐसे ही दे दिया जहाँ सुभाष चंद बोसे जैसे नेता भारत रत्न के लिए आजादी के बहुत वर्षो बाद चुने जाते हैं और जहाँ जनता को देश के लिए कार्य करने वालो के लिए जनता को खुद भारत रत्ना कि सिफारिश करनी पड़ती हो वहाँ महात्मा गाँधी के योगदान कुछ तो होगा जो उन्हें पिता का दर्जा मिला,फिर सचिन से उनका क्या मुकाबला?वे सचिन के समय के नहीं,वे कोई क्रिकेटर नहीं.और जहाँ तक बात है भरोसे की तो ये पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं=
"जब-जब तेरा बिगुल बजा जवान चल पड़े,
मजदूर चल पड़े थे और किसान चल पड़े,
हिन्दू व मुसलमान सिख पठान चल पड़े,
कदमो पे तेरे कोटि-कोटि प्राण चल पड़े,"
महात्मा गाँधी से उनकी तुलना का यहाँ कोई मतलब भी नहीं.और इस तरह के सर्वेक्षण की खबर को प्रमुखता देना एक उच्च कोटि के समाचार पत्र के लिए सही नहीं इस लिए उस को इस सम्बन्ध में ध्यान देना चाहिए .जैसे चाहे शुक्ल पक्ष हो या कृष्ण पक्ष सूर्य के प्रकाश पर कोई असर नहीं होता ऐसे ही महात्मा गाँधी के नाम के आगे कोई और नाम हो ही नहीं सकता .इस तरह के सर्वेक्षण बंद होने चाहिए जो जनता के समक्ष गलत बाते रखते हैं .अमिताभ जी से तुलना सही है किन्तु आज जब गाँधी जी हमारे बीच में नहीं हैं तब इस तरह के सर्वेक्षण क्या वास्तव में सही हैं?और क्या सही हैं हम जो भरोसे के विषय में सचिन को महात्मा गाँधी जी से ऊपर रखते हैं .महात्मा गाँधी जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान कर दिया और खुद कोई फायदा कभी नहीं लिया .हम में से बहुत से लोग उनके सिद्धांतों से मतभेद रख सकते हैं किन्तु जहाँ तक बात है उनके खुद के लिए कुछ करने कि तो शायद एक राय ही होंगे.इसलिए जैसा मैं सोच रही हूँ क्या आप भी इन सर्वेक्षणों के बारे में वही सोच रहे हैं?
मैं तो उनके सम्बन्ध में एक कवि महोदय के शेर को प्रस्तुत कर अपनी लेखनी को विराम दे रही हूँ.किन्तु आप सोचियेगा ज़रूर-
'कैंची से चिरागों की लौ काटने वालो.
सूरज की तपिश को रोक नहीं सकते.
तुम फूल को चुटकी से मसल सकते हो,
पर फूल की खुशबू समेत नहीं सकते."
टिप्पणियाँ
दिवालिया हो जाना हमेशा पैसे से ना जोड़ा जाए कुछ लोग अपनी बुद्धि से भी दिवालिया होते हैं जैसे कि तेंदुलकर और गाँधी जी को एक ही तराजू में तोलने वाले :(
एक बात जो मुझे समझ में आती है / मेरा अनुमान है कि सर्वे में भाग लेने वाले ज्यादातर लोग १९४७ के बाद पैदा हुए होंगे इसलिए आज़ाद मुल्क में पैदा होने के बाद उनकी अपनी प्राथमिकतायें हैं ! अगर गुलाम मुल्क के समय के ज्यादातर लोग इस सर्वे में हिस्सा लेते तो भरोसे की प्राथमिकताओं में तेंदुलकर का नामोनिशान भी नहीं होता !
इस आलेख में आपने एक अहम चिंता व्यक्त की है आपसे सहमत !