उत्तराखंड के दलितों की जय हो .

अमर उजाला हिंदी दैनिक से साभार 
''उत्तराखंड में दलितों का ब्राह्मण विद्रोह ''समाचार पढ़कर आज वास्तव में अगर कहूं तो मन खुश हो गया . स्वयं ब्राह्मण  होते हुए मैं  उनके इस कदम की सराहना कर  रही हूँ ,कारण केवल एक आज स्वयं ब्राह्मणों ने ही ब्राह्मणत्व का नाम डुबो दिया है . जिनकी समाज में उपस्थिति ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में है और उन्होंने स्वयं को ईश्वर ही मान लिया है और अपने हर कृत्य को सही ठहराने की जैसे कसम ही खा ली है .यही नहीं आज यह समुदाय न केवल ''पेट पूजक ''बल्कि ''धन पूजक ''के रूप में भी ख्याति पा रहा है और जिसके चरण छूकर सभी अपने को धन्य मानते हैं वही आज पूंजीपतियों व् धनिकों के चरणों में झुका जा रहा है .
   उत्तराखंड के दलितों ने आज इस वर्ग को चुनौती देने की ठानकर न केवल अपने वर्ग हेतु बल्कि समस्त वर्गों के लिए हितकारी कार्य किया है क्योंकि ये मात्र दलितों को ही नहीं बल्कि क्षेत्रवार भी भेदभाव की नीति अपनाते हैं .एक क्षेत्र के ब्राह्मण दूसरे क्षेत्र के ब्राह्मण को वरीयता नहीं देते .
               एक अपने ही बड़ों से सुनी बात आपको बता रही हूँ कि ऐसा हमारे एक बड़े को भी ब्राह्मण होते हुए भुगतना पड़ा .हमारे रिश्ते में परदादा जी लगने वाले रायबहादुर पंडित चंद्रभान  जी जो कोर्ट साहब के रूप में तब कानपुर में तैनात थे उन्हें भी श्राद्ध पक्ष में वहां के ब्राह्मणों ने आने से इन्कार कर दिया तब उन्हें पुलिस की सहायता से उन्हें अपने यहाँ श्राद्ध में आने को मजबूर करना पड़ा और ये बात कई दशक पुरानी है .
                     आज वर्णव्यवस्था ने लोगों में घमंड को कुछ ज्यादा ही बढ़ा दिया है एक और जहाँ वैश्यसमुदाय यह कहता है कि ''ब्राह्मण हमारी दया पर पलते हैं '' वहीँ ब्राह्मण समुदाय भी कहता है कि हम ही तुम्हारी शादी विवाह करवाते हैं यदि हम न हों तो तुम कुंवारे ही मर जाओगे .''कारण सभी जानते हैं बदलाव पुरानी मान्यताओं में ,जो ढांचा ऋग्वेद में पुरुष सूक्त में वर्णव्यवस्था का था वह आज बदल गया है .तब कर्म से वर्ण नियत होता था आज जन्म से नियत होने लगा है .तब शिक्षा से जुड़े लोग ब्राहमण माने जाते थे और उनका कार्य शिक्षा का प्रचार प्रसार था .क्षत्रियों का कार्य शस्त्र धारण कर समाज की रक्षा करना था .वैश्यों का कार्य व्यापार व् पशुपालन द्वारा संपत्ति का उत्पादन व् लोगों की उदर पूर्ति करना था .और शूद्रों का कार्य सभी वर्णों की सेवा करना था और तब जो भी जो कार्य करता था वह उसी वर्ण का समझा जाता था .आज स्थिति पलट चुकी है और सात्विकता से जुदा ब्राह्मण वर्ग व्यभचारी व् शराबी होने पर भी पंडित की उपाधि पाता है .लोगों का पेट भरने के स्थान पर उनके लिए मिलने वाले अनाज को गोदाम में छिपाने वाला वैश्य लाला जी बना फिरता है रक्षा का भार उठाने वाले स्वयं संरक्षक बनने के स्थान पर संहारक  बन जाते है और इतने पर भी राजा बने फिरते हैं बस दयनीय स्थिति है तो शूद्र की जिसमे शिक्षा का उजाला होने के बावजूद वर्ण में चौथा स्थान होने के कारण निम्न ही समझा जाता है .किसी बड़े आदमी के सामने कुर्सी पर बैठने तक का हक़ उसे नहीं मिलता है .और वह हीनता का बर्ताव ही सबसे पाता है .ऐसे में उत्तराखंड के दलितों का यह कदम समाज की कीचड को हटाने की दिशा में एक सराहनीय कदम कहा जा सकता है .
                      शालिनी कौशिक
                           [कौशल ]



टिप्पणियाँ

उम्मतें ने कहा…
समय बदल रहा है लोगों को भी बदलना चाहिए !
दरअसल कई लोग वर्णवादी व्यवस्था को दोष देकर हिंदू धर्म को ही कठघरे में खड़े करते हैं लेकिन पहले वर्ण कर्मों के आधार पर होते थे और धीरे धीरे वर्णव्यवस्था को जातिवादी आधार पर बना दिया गया और यही सबसे बड़ी विडम्बना है !
बेनामी ने कहा…
अब तो लोगों को भी बदलना चाहिए
Anita ने कहा…
सार्थक पोस्ट !
बढिया संदेश, सार्थक रिपोर्ट



मुझे लगता है कि राजनीति से जुड़ी दो बातें आपको जाननी जरूरी है।
"आधा सच " ब्लाग पर BJP के लिए खतरा बन रहे आडवाणी !
http://aadhasachonline.blogspot.in/2013/07/bjp.html?showComment=1374596042756#c7527682429187200337
और हमारे दूसरे ब्लाग रोजनामचा पर बुरे फस गए बेचारे राहुल !
http://dailyreportsonline.blogspot.in/2013/07/blog-post.html
Ramakant Singh ने कहा…
बढिया संदेश, सार्थक रिपोर्ट
वर्ण व्यवस्था जो अब जाति व्यवस्था बन चूका है ,भारतीय समाज के लिए एक अस्भिशाप है .आपका विश्लेषण सटीक है
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