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मार्च, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

#जागो रे आम आदमी

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किसी शायर ने कहा है - ''कौन कहता है आसमाँ में सुराख़ हो नहीं सकता , एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों .'' भारतवर्ष सर्वदा से ऐसी क्रांतियों की भूमि रहा है जिन्होंने हमेशा ''असतो मा सद्गमय ,तमसो मा ज्योतिर्गमय ,मृत्योर्मामृतं गमय''का ही सन्देश दिया है और क्रांति कभी स्वयं नहीं होती सदैव क्रांति का कारक भले ही कोई रहे पर दूत हमेशा आम आदमी ही होता है क्योंकि जिस तरह से लावा ज्वालामुखी के फटने पर ही उत्पन्न होता है वैसे ही क्रांति का श्रीगणेश भी आम आदमी के ह्रदय में उबलते क्रोध के फटने से ही होता है . डेढ़ सौ वर्षों की गुलामी हमारे भारतवर्ष ने झेली और अंग्रेजों के अत्याचारों को सहा किन्तु अंग्रेजों को हमारे क्रांतिकारियों के सामने हमेशा मुंह की खानी पड़ी .हमारे देश के महान क्रन्तिकारी चंद्रशेखर आजाद को गिरफ्तार करने के बावजूद वे उन्हें तोड़ नहीं पाये .उनकी वीरता अंग्रेजों के सामने भी अपने मुखर अंदाज में थी - ''पूछा उसने क्या नाम बता -आजाद , पिता को क्या कहते -स्वाधीन, पिता का नाम - और बोलो किस घर में हो रहते ? कहते हैं जेलखान...

चर्चा कार

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करते हैं बैठ चर्चा,         खाली ये जब भी होते, कोई काम इनको करते          मैने कभी न देखा. ................................................... वो उसके साथ आती,           उसके ही साथ जाती, गर्दन उठा घुमाकर            बस इतना सबने देखा. ................................................... खाते झपट-झपट कर,            औरों के ये निवाले, अपनी कमाई का इन्हें            टुकड़ा न खाते देखा. .................................................... बेचारा उसे कहते,          जिसकी ये जेब काटें, कुछ करने के समय पर            मौके से भागा देखा. ..................................................... ठेका भले का इन पर,         मालिक ये रियाया के, फिर भी जहन्नुमों में          इनको है बैठे देखा. ................................

क्या नारीशक्ति यथार्थ है?

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  नारी सशक्त हो रही है .इंटर में लड़कियां आगे ,हाईस्कूल में लड़कियों ने लड़कों को पछाड़ा ,आसमान छूती लड़कियां ,झंडे गाडती लड़कियां जैसी अनेक युक्तियाँ ,उपाधियाँ रोज़ हमें सुनने को मिलती हैं .किन्तु क्या इन पर वास्तव में खुश हुआ जा सकता है ?क्या इसे सशक्तिकरण कहा जा सकता है ? नहीं .................................कभी नहीं क्योंकि साथ में ये भी देखने व् सुनने को मिलता है . *आपति जनक स्थिति में पकडे गए तीरंदाज, *बेवफाई से निराश होकर जिया ने की आत्महत्या , *गीतिका ने , *फिजा ने और न जाने किस किस ने ऐसे कदम उठाये जो हमारी सामाजिक व्यवस्था पर कलंक है . गोपाल कांडा के कारण गीतिका ,चाँद के कारण फिजा के मामले सभी जानते हैं और ये वे मामले हैं जहाँ नारी किसी और के शोषण का शिकार नहीं हुई अपितु अपनी ही महत्वकांक्षाओं  का शिकार हुई .अपनी समर्पण की भावना के कारण ढेर हुई ये नारियां नारी के सशक्तिकरण की ध्वज की वाहक बनने जा रही थी किन्तु जिस भावना के वशीभूत हो ये इस मुकाम पर पहुंचना चाहती थी वही इनके पतन का या यूँ कहूं कि आत्महत्या का कारण बन गया .. ये समर्पण नारी को सशक...

शादीशुदा दासी नहीं

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  आज जैसे जैसे महिला सशक्तिकरण की मांग जोर  पकड़ रही है वैसे ही एक धारणा और भी बलवती होती जा रही है वह यह कि विवाह करने से नारी गुलाम हो जाती है ,पति की दासी हो जाती है और इसका परिचायक है बहुत सी स्वावलंबी महिलाओं का विवाह से दूर रहना .     यदि हम सशक्तिकरण की परिभाषा में जाते हैं तो यही पाते हैं कि ''सशक्त वही है जो स्वयं के लिए क्या सही है ,क्या गलत है का निर्णय स्वयं कर सके और अपने निर्णय को अपने जीवन में कार्य रूप में परिणित कर सके ,फिर इसका विवाहित होने या न होने से कोई मतलब ही नहीं है .हमारे देश का इतिहास इस बात का साक्षी है कि हमारे यहाँ कि महिलाएं सशक्त भी रही हैं और विवाहित भी .उन्होंने जीवन में कर्मक्षेत्र न केवल अपने परिवार को माना बल्कि संसार के रणक्षेत्र में भी पदार्पण किया और अपनी योग्यता का लोहा मनवाया .      मानव सृष्टि का आरंभ केवल पुरुष के ही कारण नहीं हुआ बल्कि शतरूपा के सहयोग से ही मनु ये कार्य संभव कर पाए .    वीरांगना झलकारी बाई पहले किसी फ़ौज में नहीं थी .जंगल में रहने के कारण उन्होंने अपने प...

लिव इन - भारतीय संस्कृति पर चोट

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  प्रसिद्द समाजशास्त्री आर.एन.सक्सेना कहते हैं कि- ''ज्यों ज्यों एक समाज परंपरा से आधुनिकता की ओर बढ़ता है उसमे शहरीकरण ,औद्योगीकरण ,धर्म निरपेक्ष मूल्य ,जनकल्याण की भावना और जटिलता बढ़ती जाती है ,त्यों त्यों उसमे कानूनों और सामाजिक विधानों का महत्व भी बढ़ता जाता है .''      सक्सेना जी के विचार और मूल्यांकन सही है  किन्तु यदि हम गहराई में जाते हैं तो हम यही पाते हैं कि मानव प्रकृति जो चल रहा है ,चला आ रहा है उसे एक जाल मानकर छटपटा उठती है और भागती है उस तरफ जो उसके आस पास न होकर दूर की चीज़ है क्योंकि दूर के ढोल सुहावने तो सभी को लगते हैं .हम स्वयं यह बात अनुभव करते हैं कि आज विदेशी भारतीय संस्कृति अपनाने के पीछे पागल हैं तो भारतीय विदेशी संस्कृति अपनाने की पीछे पागल हैं ,देखा जाये तो ये क्या है ,मात्र एक छटपटाहट परिवर्तन के लिए जो कि प्रकृति का नियम है जिसके लिए कहा ही गया है कि -     ''change is the rule of nature .''   और यह सांस्कृतिक परिवर्तन चलता ही रहता है क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह मानव ही इसलिए है क्योंकि उसकी ए...

होली की हार्दिक शुभकामनायें

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      आज जब मैं बाज़ार से घर लौट रही थी तो देखा कि स्कूलों से बच्चे रंगे हुए लौट रहे हैं और वे खुश भी थे जबकि मैं उनकी यूनीफ़ॉर्म के रंग जाने के कारण ये सोच रही थी कि जब ये घर पहुंचेंगे तो इनकी मम्मी ज़रूर इन पर गुस्सा होंगी .बड़े होने पर हमारे मन में ऐसे ही भाव आ जाते हैं जबकि किसी भी त्यौहार का पूरा आनंद   बच्चे ही लेते हैं क्योंकि वे बिलकुल निश्छल भाव से भरे होते हैं और हमारे मन चिंताओं से ग्रसित हो जाते हैं किन्तु ये बड़ों का ही काम है कि वे बच्चों में ऐसी भावनाएं भरें जिससे बच्चे अच्छे ढंग से होली मनाएं.हमें चाहिए कि हम उनसे कहें कि होली आत्मीयता का त्यौहार है इसमें हम सभी को मिलजुल कर आपस में ही त्यौहार मानना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए की हमारे काम से किसी के दिल को चोट न पहुंचे.ये कह कर कि "बुरा न मानो  होली है "कहने से गलत काम को सही नहीं किया जा सकता इसलिए कोशिश करो कि हम सबको ख़ुशी पहुंचाएं .किसी उदास चेहरे पर मुस्कुराहट  लाना हमारा त्यौहार मनाने का प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए.फिर इस त्...

आहा भारतीय अवसरवाद

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भारतीय परम्पराओं के मानने वाले हैं ,ये सदियों से चली आ रही रूढ़ियों में विश्वास करते हैं और अपने को लाख परेशानी होने के बावजूद उन्हें निभाते हैं ये सब पुराने बातें हैं क्योंकि अब भारतीय तरक्की कर रहे हैं और उस तरक्की का जो असर हमारी परम्पराओं के सुन्दर स्वरुप पर पड़ रहा है वह और कहीं नहीं क्योंकि एक सच्चाई ये भी है कि अवसरवाद और स्वार्थ भी हम सबमे कूट कूटकर भरा हुआ है और हम अपने को फायदा कहाँ है बहुत जल्दी जान लेते हैं और वही करते हैं जिसमे फायदा हो . भारत में विशेषकर हिंदुओं में हर व्यक्ति के जीवन में १६ संस्कारों को स्थान दिया गया है इसमें से और कोई संस्कार किसी का हो या न हो और लड़कियों का तो होता ही केवल एक संस्कार है वह है विवाह जो लगभग सभी का होता है तो इसमें ही मुख्य रूप से परिवर्तन हम ध्यान पूर्वक कह सकते हैं कि निरंतर अपनी सुविधा को देखते हुए लाये जा रहे हैं और ये वे परिवर्तन हैं जिन्होंने इस संस्कार का स्वरुप मूल रूप से बदलकर डाल दिया है और ये भी साफ़ है कि इस सबके पीछे हम हिंदुओं की अपनी सुविधा और स्वार्थ है .परिवर्तन अब देखिये क्या क्या हो गए हैं - * पहले विवाह में ...

..औरत ........,.... लांछित........ हैं

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व्यथित सही ,पीड़ित सही ,पर तुझको लगे ही रहना है , जब तक सांसें ये बची रहें ,हर पल मरते ही रहना है . ............................................................................ पिटना पतिदेव के हाथों से ,तेरी किस्मत का लेखा है , इस दुनिया की ये बातें ,माथे धरकर ही रहना है . .......................................................................... औरत की चाहत का जग में ,कोई मोल नहीं है कभी नहीं , तू सुन ले कान खोल अपने ,तुझे नौकर बन ही रहना है . ................................................................................... जो औरत बढे जरा आगे ,ये लांछित उसको करते हैं , तुझको इनकी आज्ञाओं का ,पालन करते ही रहना है . .................................................................................. पल-पल की सच्चाई कहती ,'शालिनी' खुलकर के दिल से , नारी को जीवन जीने को ,बस दब-दबकर ही रहना है . शालिनी कौशिक        [कौशल ]

मासूम बच्चों से यौन अपराध - जिम्मेदारी आधुनिक नारी की?

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''आंधी ने तिनका तिनका नशेमन का कर दिया , पलभर में एक परिंदे की मेहनत बिखर गयी .'' फखरुल आलम का यह शेर उजागर कर गया मेरे मन में उन हालातों को जिनमे गलत कुछ भी हो जिम्मेदार नारी को ठहराया जाता है जिसका सम्पूर्ण जीवन अपने परिवार के लिए त्याग और समर्पण पर आधारित रहता है .किसी भी सराहनीय काम का श्रेय लेने के नाम पर जब सम्पूर्ण समाज विशेष रूप से पुरुष वर्चस्ववादी समाज आगे बढ़ सीना तान कर खड़ा हो जाता है तो समाज में घटती अशोभनीय इन वारदातों का ठीकरा नारी के सिर क्यों फोड़ते हैं ?जबकि मासूम बच्चियां जिस यौन दुर्व्यवहार की शिकार हो रही हैं उसका कर्ता-धर्ता तो पुरुष ही है .    आधुनिक महिलाएं आज निरंतर प्रगति पथ पर आगे बढ़ रही हैं और ये बात पुरुष सत्तात्मक समाज को फूटी आँख भी नहीं सुहाती और इसलिए सबसे अधिक उसकी वेशभूषा को ही निशाना बनाया जाता है .सबसे ज्यादा आलोचना उसके वस्त्र चयन को लेकर ही होती है .जैसे कि एक पुराने फ़िल्मी गाने में कहा गया- ''पहले तो था चोला बुरका,    फिर कट कट के वो हुआ कुरता ,       चोले की अब चोली है बनी      ...

खुदा की कुदरत.......

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तमन्ना जिसमे होती है कभी अपनों से मिलने की रूकावट लाख भी हों राहें उसको मिल ही जाती हैं , खिसक जाये भले धरती ,गिरे सर पे आसमाँ भी खुदा की कुदरत मिल्लत के कभी आड़े न आती है . ............................................................................................ फ़िक्र जब होती अपनों की समय तब निकले कैसे भी दिखे जब वे सलामत हाल तसल्ली दिल को आती है , दिखावा तब नहीं होता प्यार जब होता अपनों में मुकाबिल कोई भी मुश्किल रोक न इनको पाती है . ....................................................................... मुकद्दर साथ है उनके मुक़द्दस ख्याल रखते जो नहीं मायूसी की छाया राह में आने पाती है , मुकम्मल है वही सम्बन्ध मुहब्बत नींव है जिसकी महक ऐसे ही रिश्तों की सदा ये सदियाँ गाती हैं . .......................................................................... खोलती है अपनी आँखें जनम लेते ही नन्ही जान फ़ौज वह नातेदारों की सहमकर देखे जाती है, गोद माँ की ही देती है सुखद एहसास वो उसको जिसे पाकर अनजानों में सुकूँ से वो सो पाती है . ...............................................