देह तक सिमटती आधुनिक नारी की सोच

सर्दियों का मौसम लगभग आरंभ हो गया है. सुबह और शाम को हल्की हल्की ठंड महसूस होने लगी है. रात को सोते समय पंखों का बंद होना भी शुरू हो गया है. सुबह के समय खेतों पर जाते हुए लोग गरम चादर ओढ़कर जाते हुए दिखने लगे हैं. मौसम परिवर्तन लोगों की वेषभूषा में बदलाव तो लाता ही है किन्तु जितना अधिक बदलाव पुरुषों की वेशभूषा में लाता है उतना महिलाओं की वेषभूषा में नहीं, आखिर क्यूं? ये प्रश्न विचारणीय है. 
सोनी टी वी पर आज कल एक विज्ञापन प्रचारित है जिसमें कैटरीना कैफ, रणबीर कपूर व आदित्य प्रतीक सिंह सिसौदिया उर्फ बादशाह ने काम किया है, बादशाह और रणबीर कपूर को देखकर लगता है कि सर्दी का मौसम बहुत जोरों पर है क्योंकि दोनों ही गरम भारी जैकेट पहने हुए हैं किन्तु तभी ध्यान जाता है कैटरीना कैफ पर, तो लगता है कि अभी तो सर्दी के मौसम की सोच भी दिमाग में लाना खुद पर जुल्म करना होगा क्योंकि कैटरीना साधारण गर्मी के वस्त्र पहने हुए हैं. 
न केवल कैटरीना बल्कि आजकल अगर हम अपने आस-पास भी नज़र दौड़ाते हैं तो ये महिला - पुरुष का भेदभाव हमारी नज़रों से अछूता नहीं रहेगा, एक तरफ मौसम के इस बदलाव में पुरुष जहां सफारी सूट, पूरी बाहों की शर्ट - पैंट में दिखाई दे रहे हैं वहीं महिलाओं की फ़ैशन के प्रति दीवानगी की सीमा की कोई हद ही नहीं है और ये दीवानगी ही कही जाएगी जिसमें महिलाओं के कपड़े की कटिंग बढ़ती ही जा रही है. 
आज शरद पूर्णिमा है, आज के दिन ही ठंड की ये दशा है कि सोते समय पंखा बंद करना पसंद आ रहा है और अब से लगभग एक माह बाद ये ठंड शायद अपने चरम पर पहुंच जाएगी ऐसा सोच सकते हैं किन्तु उफ्फ ये  फैशन पीड़ित महिलाएं, इनके लिए उससे सुहावना मौसम कोई होगा ही नहीं और ऐसे में उनके कपड़े मात्र तन ढकने का पर्याय बनकर रह जाएंगे. देवोत्थान एकादशी से शादियों का सीजन शुरू हो जाएगा और तब पुरुषों के लिए जहां गरम सूट भी ठंड रोकने के लिए कम पड़ेंगे वहीं नारियों के लिए गरम तो गरम ठंडे कपड़ों की भी कोई ज़रूरत नहीं रहेगी, अपना शरीर दिखाने के लिए ये फैशन पीड़ित नारियां शरीर पर से जितने कपड़े कम कर सकेंगीं, कम कर देंगी. 
महिलाएं इस दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य हैं, एक तरफ पुरुषों के द्वारा छेड़छाड़ से पीड़ित हैं तो दूसरी तरफ पुरुष इन पर ध्यान न दें तो भी पीड़ित हैं और इसीलिए आकर्षण का मुद्दा बनने के लिए इस तरह की हरकत करती हैं क्योंकि पुरुषों के अनुसार जो नारी ऐसा नहीं करती वह या तो आंटी है या बहनजी और इन फ़ैशन पीड़ित नारियों को अपने लिए ये सुनना बिल्कुल बर्दाश्त नहीं इसलिए जहां एक तरफ स्कूटी चलाते वक़्त पूरी बाहों के दस्ताने पहन अपने हाथों को धूप से काले होने से बचाती हैं वहीं कंधों के काले होने का कोई डर नहीं क्योंकि वहां से आधुनिकता से जुड़ाव दिखाया जाता है और कंधों पर से आस्तीन को काट लिया जाता है. 
इसलिए अगर ये फ़ैशन पीड़ित नारियां ये कहें कि इस तरह के कपड़ों से छेडछाड या दुष्कर्म का कोई मतलब नहीं है तो यह बिल्कुल गलत होगा क्योंकि इन आधुनिक नारियों की यह विशेषता ही आज छेड़छाड़ या दुष्कर्म की मुख्य वजह कही जा सकती है क्योंकि ये अपनी इन हरकतों से ये पुरुषों में कामुकता को भड़का देती हैं जिसे शांत करने के लिए उन हवस पीड़ित पुरुषों को जो कोई भी मिल जाती है उसे वह अपना शिकार बना लेता है और ऐसे में उसका सबसे आसान शिकार छोटी बच्चियां ही होती हैं क्योंकि छोटी बच्चियां ना तो विरोध कर सकती हैं और न ही किसी को कुछ बता सकती हैं लेकिन ये फैशन पीड़ित नारियां न तो इस बात को कभी मानेंगी न ही इसके लिए अपने कपड़ों में कोई परिवर्तन ही अमल में लाएंगी क्योंकि ऐसा करते ही तो ये बैकवर्ड हो जाएंगी. 
शालिनी कौशिक एडवोकेट 
(कौशल) 

टिप्पणियाँ

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-10-2019) को     "सूखे कलम-दवात"  (चर्चा अंक- 3489)   पर भी होगी। 
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Pammi singh'tripti' ने कहा…

जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 16 अक्टूबर 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद
मन की वीणा ने कहा…
सटीक विचारोंतेजक लेख।
Sudha Devrani ने कहा…
एकदम सटीक....
और फिर इसे आधुनिकता का जामा पहनाकर कहते है हमें बदलने से पहले अपना नजरिया बदलो...औरतें अपनेआप में होती ही सुन्दर हैं फिर ऐसे कपड़ों की क्या जरूरत.... किसी भी पार्टीज में देखिये कितनी भी ठंड हो औरतें गर्म कपडों में नहीं दिखेंगी...
Meena sharma ने कहा…
शालिनी जी, आपने जो मुद्दा उठाया है उससे आपको भी बैकवर्ड सोचवाला
कहा जाएगा और ये कहनेवाली स्त्रियाँ ही होंगी, पुरुष नहीं। मैं यहाँ एक उदाहरण
देना चाहूँगी। हमारी पाठशाला में पहलेवाले प्रिंसिपल एक विद्वान बुजुर्ग थे जिन्होंने
टीचर्स को शालीन कपड़ों में आने की चेतावनी दे रखी थी। पिछले चार पाँच वर्षों में
नई पीढ़ी की टीचर्स की ज्यादा नियुक्ति हुई। उनके कपड़ों के सेंस /नॉनसेंस को देखते
हुए स्कूल मैनेजमेंट ने सबके लिए यूनीफॉर्म जारी कर दिया। अब वे कहती हैं कि यह
उनके अधिकारों का हनन है, अपनी मर्जी के मुताबिक कपड़े भी नहीं पहनने देते।
गलती किसकी है ?
मुझे आपकी पोस्ट बहुत अच्छी लगी। मैं आपसे सहमत हूँ।
Shalini kaushik ने कहा…
उत्साहवर्धन हेतु आप सभी का आभार और सुधा जी व मीना जी आलेख पर आपके कमेंट मेरे लिए संग्रहणीय हैं, हार्दिक धन्यवाद आप दोनों का.

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