दिखावा...आज का सबसे बड़ा रोग
दूरदर्शन पर एक विज्ञापन आ रहा था ,लड़की की माँ कहती है ''५०० मेहमान आयेंगें शादी में ''तो लड़की का बाप कहता है ''तो हम ७०० लोगों का खाना बनवाएंगें .'' यहाँ न तो मैं उन पंडित जी की तरह लड़की की कुंडली का अन्न दोष बता रही हूँ और न ही लड़की के माँ -बाप की सम्पन्नता या मेहमानों की आवभगत की दिलदारी बल्कि यहाँ जो भावना वास्तव में दृष्टिगोचर है और जो वास्तव में आजकल की सबसे बड़ी बीमारी है वह है ''दिखावा ''.
सबसे पहले यदि हम दिखावे की प्रथम जगह लें तो चूँकि सभी जानते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और इस स्थिति से वह सबसे पहले अपनी सामाजिक हैसियत बनाने में जुटता है और यह हैसियत मिलती है उसे धन -दौलत से ,जिसे इस समाज में जो हासिल कर लेता है वह सभी को स्वयं से नीचे समझता है और जो हासिल नहीं कर पाता वह अपने को उनके समकक्ष दिखाने के लिए अपने को क़र्ज़ की उस सीमा तक बांध लेते हैं जिसे पानी में गले तक डूबना कहते हैं और उसी का परिणाम आज बहुत से परिवारों की सामूहिक आत्महत्या के रूप में नज़र आ रहा है ,जिसके पास अकूत धन संपत्ति है वह सादी दाल रोटी खाता दिख जायेगा सादे वस्त्रों में आराम से घूमता फिरता दिख जायेगा सस्ते मोबाईल को लिए बस में सफर करता दिख जायेगा क्योंकि वह अमीर है यह सब जानते हैं और इसलिए उसे दिखावे की ज़रुरत नहीं है किन्तु जिसके पास रोज के खाने पीने को भी रोज की मेहनत से पैसे आते हैं वह अपने को संपन्न दिखाने के लिए कर्ज की हद :आत्महत्या तक बांध लेता है .
यही नहीं कि लोग केवल पैसे का दिखावा करते हैं दिखावे तरह तरह के होते हैं ,जहाँ बहुत से भाई हैं और उन सभी की अपनी अपनी बेटियां लगभग बराबर बराबर की हैं वहां हर भाई यह दिखाने के लिए कि मेरी बेटी का विवाह दूसरे की बेटी से अच्छे व् सम्पन्न परिवार में हुआ दिखाने के लिए ,लड़के वालों का गलत व्यव्हार सहते हुए भी ,करता है और अपने इधर के दिखावे के लिए लड़के वालों के मुंह पर वैसे ही नोट लगा देता है जैसे कुत्ते के मुंह खून ,मेरा कहने का ,मतलब ये है कि जरूरी नहीं कि जैसे कुत्ता पहले कटखना नहीं होता किन्तु जब एक बार उसके मुंह आदमी का खून लग जाये तो वह कटखना हो जाता है वैसे ही जरूरी नहीं कि लड़के वाले शुरू से ही उतने लालची हों कि पैसे के लिए लड़की को मरने -मारने पर उतारू हो जाएँ किन्तु जब उन्हें दिख जाता है कि लड़की के माँ-बाप दिखावे में डूबे हैं ,लड़की के साथ कितना भी बुरा व्यव्हार करो वे उसे वापस हमारे यहाँ अर्थात उसकी ससुराल में ही भेज रहे हैं और हमारी अनर्गल मांगें भी पूरी कर रहे हैं ,न हमारे अत्याचारों के खिलाफ अपने परिवार में ही किसी को बता रहे हैं न समाज में बता रहे हैं न कानून का सहारा ले रहे हैं और हमारा पेट हम जितने भी नोट मांगें उससे भर रहे हैं तो वे ऐसी हरकतों पर उतर आते हैं .यही नहीं कि दिखावा माँ-बाप ही करते हैं बल्कि बहुत सी जगह उनकी वे बेटियां भी अपने को अन्याय सहने को तैयार करती हुई दिखाई देती हैं जो घर में मार-पिटाई खाकर भी अपने को खुश दिखाने के लिए सुबह उठते ही स्वयं को मेक-अप से सराबोर कर लेती हैं या मायके आने पर ज़रुरत से ज्यादा गहनों व् कीमती कपड़ों से लदी फिरती हैं .
दिखावा आज देखा जाये तो एक महामारी का रूप ग्रहण कर चुका है और इसलिए इस सम्बन्ध में बस यही कहा जा सकता है -
''घर में नहीं दाने ,
अम्मा चली भुनाने .''
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
टिप्पणियाँ
सँमली है कि धवली है, है भारी कि सुडोल ।
पापा जी धणी हो तो देखे कौण कपोल ।१४८३।
भावार्थ : -- पहले का समय और था जब बड़े-बूढ़े कुटुम देखा करते थे,उसकी विरदावली देखा करते थे, कुटुम के सत्कृत्य देखते थे,गोधन, भूधन देखते थे और कन्या को देखे बिना ही सम्बद्ध स्वीकार कर लेते थे । फिर कन्या देखने वाला समय आया । अब तो समय ही ऐसा दिखावे वाला आ गया जी, सवलाई है कि मलमलाई है कि माड़ी है कि ठाड्डी है । पापा जी धनी हो तो छोरी के गाल कोई ना देखे, पैसा वसूल है तो जो है कबूल है॥
सँमली है कि धवली है, है भारी कि सुडोल ।
पापा जी धणी हो तो देखे कौण कपोल ।१४८३।
भावार्थ : -- पहले का समय और था जब बड़े-बूढ़े कुटुम देखा करते थे,उसकी विरदावली देखा करते थे, कुटुम के सत्कृत्य देखते थे,गोधन, भूधन देखते थे और कन्या को देखे बिना ही संबंध स्वीकार कर लेते थे । फिर कन्या देखने वाला समय आया । अब तो समय ही ऐसा दिखावे वाला आ गया जी, सवलाई है कि मलमलाई है कि माड़ी है कि ठाड्डी है । पापा जी धनी हो तो छोरी के गाल कोई ना देखे, पैसा वसूल है तो जो है कबूल है॥
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (05-05-2014) को "मुजरिम हैं पेट के" (चर्चा मंच-1603) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'