नारी :हमेशा बेघर ,बेचारी
निकल जाओ मेरे घर से
एक पुरुष का ये कहना
अपनी पत्नी से
आसान
बहुत आसान
किन्तु
क्या घर बनाना
उसे बसाना
सीखा कभी
पुरुष ने
पैसा कमाना
घर में लाना
क्या मात्र
पैसे से बनता है घर
नहीं जानता
घर
ईंट सीमेंट रेत का नाम नहीं
बल्कि
ये वह पौधा
जो नारी के त्याग, समर्पण ,बलिदान
से होता है पोषित
उसकी कोमल भावनाओं से
होता पल्लवित
पुरुष अकेला केवल
बना सकता है
मकान
जिसमे कड़ियाँ ,सरिये ही
रहते सिर पर सवार
घर
बनाती है नारी
उसे सजाती -सँवारती है
नारी
उसके आँचल की छाया
देती वह संरक्षण
जिसे जीवन की तप्त धूप
भी जला नहीं पाती है
और नारी
पहले पिता का
फिर पति का
घर बसाती जाती है
किन्तु न पिता का घर
और न पति का घर
उसे अपना पाता
पिता अपने कंधे से
बोझ उतारकर
पति के गले में डाल देता
और पति
अपनी गर्दन झुकते देख
उसे बाहर फेंक देता
और नारी
रह जाती
हमेशा बेघर
कही जाती
बेचारी
जिसे न मिले
जगह उस बगीचे में
जिसकी बना आती वो क्यारी- क्यारी .
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
टिप्पणियाँ
अत्यंत मार्मिक एवं सच्ची रचना
नया वर्ष २०१४ मंगलमय हो |सुख ,शांति ,स्वास्थ्यकर हो |कल्याणकारी हो |
नई पोस्ट सर्दी का मौसम!
नई पोस्ट विचित्र प्रकृति
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (06-01-2014) को "बच्चों के खातिर" (चर्चा मंच:अंक-1484) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धीरे धीरे बदलाव दस्तक दे रहा है पर अभी भी बहुत दूर जाना है ...