सच्चाई ये ज़माने की थोड़ी न मुकम्मल ,
ज़िंदगी उस शख्स की सुकूँ से गुज़र सकी ,
औलाद जिसकी दुनिया में काबिल न बन सकी .
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बेटे रहे हैं साथ वही माँ-बाप के अपने ,
बदकिस्मती से नौकरी जिनकी न लग सकी .
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बेटी करे बढ़कर वही माँ-बाप की खातिर ,
मैके के दम पे सासरे के सिर जो चढ़ सकी .
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भाई करे भाई का अदब उसी घडी में ,
भाई की मदद उसकी गाड़ी पार कर सकी .
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बहन बने भाई की तब ही मददगार ,
अव्वल वो उससे उल्लू अपना सीधा कर सकी .
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बीवी करे है खिदमतें ख्वाहिश ये दिल में रख ,
शौहर की शख्सियत से उसकी साख बन सकी .
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शौहर करे है बीवी का ख्याल सोच ये ,
रखवाई घर की दासी से बेहतर ये कर सकी .
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सच्चाई ये ज़माने की थोड़ी न मुकम्मल ,
तस्वीर का एक रुख ही ''शालिनी ''कह सकी .
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शालिनी कौशिक
[कौशल ]
टिप्पणियाँ
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (28-01-2014) को "मेरा हर लफ्ज़ मेरे नाम की तस्वीर हो जाए" (चर्चा मंच-1506) पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'