बालश्रम -क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं ?
''बचपन आज देखो किस कदर है खो रहा खुद को ,
उठे न बोझ खुद का भी उठाये रोड़ी ,सीमेंट को .''
आज बचपन इसी भयावह दौर से गुज़र रहा है .सड़कों पे आते जाते कोई भी इस भयावहता को देख सकता है .जगह -जगह निर्माण कार्य चलते हैं और उनके लिए जिन दुकानों से माल -रोड़ी ,सीमेंट आदि मंगाए जाते हैं वहां इस काम के लिए लगाये जाते हैं छोटे-छोटे बच्चे जिनकी उम्र मुश्किल से ११-१२ या १० साल की ही होगी और जिन्हें पैसे देने की जिम्मेदारी माल ऑर्डर करने वाले पर होती है जो कि उन्हें प्रति ठेली के लगभग ५ रूपये के हिसाब से अदा करता है .
''लोहा ,प्लास्टिक ,रद्दी आकर बेच लो हमको ,
हमारे देश के सपने कबाड़ी कहते हैं खुद को .''
गली-गली में आवाज़ लगाकर लोहा ,प्लास्टिक ,रद्दी बेचने को आवाज़ें लगाते फिरते बच्चे होश संभालते ही साइकिल व् तराजू लेकर निकल पड़ते हैं और घर-घर जाकर लोगों से कबाड़ खरीदते हैं और ध्यान से देखा जाये तो १२-१३ साल से ऊपर का शायद ही कोई बच्चा होगा .
''खड़े हैं सुनते आवाज़ें ,कहें जो मालिक ले आएं ,
दुकानों पर इन्हीं हाथों ने थामा बढ़के ग्राहक को .''
किसी भी तरह की दुकान हो पंसारी की ,हलवाई की ,छोटे बच्चे ही खड़े मिलेंगे ,तुर्रा ये गरीब हैं ,इनके माँ-बाप की हज़ार मिन्नत पर ही इन्हें यहाँ रखा है और चूँकि सभी जानते हैं कि ''बच्चे मन के सच्चे'' इसलिए इनसे चोरी -चकारी का भी डर नहीं है .किसी के द्वारा दुकानों पर लगे नौकरों की उम्र अगर पूछी जाये तो कोई बच्चा भी अपने को १५ साल से कम नहीं कहता और प्रशासन द्वारा साप्ताहिक बंदी तक का भी कोई फायदा इन्हें नहीं मिलता क्योंकि उस दिन ये दुकान मालिक के घर पर ,गोदाम पर नौकरी करते हैं .
दुखद स्थिति है ,वह देश जहाँ बाल श्रम पर रोक के लिए कानून है ,जहाँ शिक्षा का अधिकार है ,जहाँ १ से १४ वर्ष तक की आयु के बच्चे की शिक्षा मुफ्त है वहां यह अनर्थ हो रहा है .जिस समय उनका भविष्य बनने की बात है उस समय उनका जीवन बर्बाद हो रहा है और करने वाला कौन -ये समाज और उनके खुद की माँ-बाप .समाज जो कि केवल रोकने का काम करता है कभी भी जिम्मेदारी की कोई भूमिका निभाता नज़र नहीं आता और माँ-बाप भगवान की देन समझ बच्चे पैदा कर देते हैं और फिर उन्हें भगवान भरोसे ही छोड़ देते हैं .ऐसे देश में जहाँ बचपन इस दुर्दशा का शिकार है वहां २१ वीं सदी ,२२ वीं सदी में जाने की बातें बेमानी लगती हैं .तरक्की की आकांक्षा व्यर्थ लगती है ,जब-
''होना चाहिए बस्ता किताबों,कापियों का जिनके हाथों में ,
ठेली खींचकर ले जा रहे वे बांधकर खुद को .''
क्या हम ऐसे में विकास की कल्पना कर सकते हैं ?क्या हम स्वयं को ऐसे बच्चे को ठेली लाने के पैसे देकर इस बात से संतुष्ट कर सकते हैं कि हमने अपना दायित्व पूरा किया ?क्या हम मात्र बच्चे के द्वारा उम्र १४ से ऊपर बताने पर उसकी सत्यता पर यकीन कर हाथ पर हाथ धरे बैठे रह सकते हैं ?या फिर हम मात्र सहानुभूति दिखाकर उसे उसके भविष्य के सुनहरे स्वप्न दिखा सकते हैं ?नहीं ...बिलकुल नहीं ...इस सबके लिए ठोस पहल अनिवार्य है .कानून के द्वारा जो व्यवस्थाएं की गयी हैं उसका प्रचार अनिवार्य है ,उनका सही हाथों में पहुंचना अनिवार्य है और लोगों में भगवान की देन-या भगवान के भरोसे इन्हें छोड़ देने की भावना का समाप्त होना अनिवार्य है .ये हम सबका कर्तव्य है और हमें इसे सच्चे मन से पूरा करना ही होगा -
''सुनहरे ख्वाबों की खातिर ये आँखें देखें सबकी ओर ,
समर्थन 'शालिनी ' का कर इन्हीं से जोड़ें अब खुद को .''
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
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