डबल ग्रुप से ऐसी बिजली

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लगे हुए थे एक माह से ,हिन्दू मुस्लिम भाई ,
थम गया था जीवन सारा ,चौपट हुई कमाई .


मना रहे थे अफसरों को ,देकर दूध मलाई ,
नेताओं ने भी आकर ,पीठ थी थपथपाई .


बिलबिलाते गर्मी से ,छत पर खाट जमाई,
पंखा झलते-झलते रहते ,नींद न फिर भी आई .


धरने करते नारे गाते ,बिछा के जब चटाई,
सीधी बातों से न माने ,तब की खूब पिटाई .


लातों के इन भूतों के ,तब बात समझ में आई ,
बिजली आने की परमिशन ,ऊपर से दिलवाई .


बजे नगाड़े ढोल तमाशे ,सबने खाई मिठाई ,
गले मिले और हाथ मिलकर ,दी गयी खूब बधाई .


डबल ग्रुप से ऐसी बिजली,देख के शामत आई ,
न चमकी दिन में आकर,न रात को पड़ी दिखाई .


                 शालिनी कौशिक 
                          [कौशल]

टिप्पणियाँ

Bhagirath Kankani ने कहा…
कविता को दो बार पढने के बाद भी यह समझ नहीं आया की आप क्या कहना चाहती है.
लम्बी अवक्धिके बाद अभिवादन !
अच्छी व्यंग्य-ग़ज़ल है!
लम्बी अवक्धिके बाद अभिवादन !
अच्छी व्यंग्य-ग़ज़ल है !

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