बेटी के भाग्य में प्रभु कांटे ही भर गया .



 

पैदा हुई है बेटी खबर माँ-बाप ने सुनी ,
खुशियों का बवंडर पल भर में थम गया .

चाहत थी बेटा आकर इस वंश को बढ़ाये ,
रखवाई का ही काम उल्टा सिर पे पड़ गया .

बेटा जने जो माता ये है पिता का पौरुष ,
बेटी जनम का पत्थर माँ के सिर पे बंध गया .

गर्मी चढ़ी थी आकर घर में सभी सिरों पर ,
बेडा गर्क ही जैसे उनके कुल का हो गया .

गर्दिश के दिन थे आये ऐसे उमड़-घुमड़ कर ,
बेटी का गर्द माँ को गर्दाबाद कर गया .

बेठी है मायके में ले बेटी को है रोटी ,
झेला जो माँ ने मुझको भी वो सहना पड़ गया .

न मायका है अपना ससुराल भी न अपनी ,
बेटी के भाग्य में प्रभु कांटे ही भर गया .

न करता कदर कोई ,न इच्छा है किसी की ,
बेटी का आना माँ को ही लो महंगा पड़ गया .

सदियाँ गुजर गयी हैं ज़माना बदल गया ,
बेटी का सुख रुढियों की बलि चढ़ गया .

 सच्चाई ये जहाँ की देखे है ''शालिनी ''
बेटी न जन्म ले यहाँ कहना ही पड़ गया .
      शालिनी कौशिक
           [कौशल]

शब्दार्थ-गर्दाबाद-उजाड़ ,विनाश 

टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
प्रेरक प्रस्तुति - सोच बदल रही है और भी बदलेगी?
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (05-11-2015) को "मोर्निग सोशल नेटवर्क" (चर्चा अंक 2151) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Rishabh Shukla ने कहा…
सुन्दर प्रस्तुती बधाई

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