दिखावा ही तो है ,,,,

Deceased with tag icon in cartoon style isolated on white background. Funeral ceremony symbol stock vector illustration.
अरस्तू के अनुसार -''मनुष्य एक सामाजिक प्राणी  है समाज जिससे हम जुड़े हैं वहां रोज़ हमें नए तमाशों के दर्शन होते हैं .तमाशा ही कहूँगी मैं इन कार्यों को जिनकी आये दिन समाज में बढ़ोतरी हो रही है .एक शरीर ,जिसमे प्राण नहीं अर्थात जिसमे से आत्मा निकल कर अपने परमधाम को चली गयी ,को मृत कहा जाता है और यही शरीर जिसमे से आत्मा निकल कर चली गयी बड़ी संख्या में लोगों द्वारा उस आत्मा के ही कारण अंतिम प्रणाम किये जाने को अंतिम दर्शन हेतु रखा जाता है जबकि आत्मा के जाने के बाद शरीर मात्र एक त्यागा हुआ वस्त्र रह जाता है .आत्मा के शरीर त्यागने के बाद जल्दी से जल्दी अंतिम संस्कार की क्रिया को अंजाम दिया जाता है क्योंकि जैसे जैसे देरी होती है शरीर का खून पानी बनता है और वह फूलना  शुरू हो जाता है साथ ही उसमे से दुर्गन्ध निकालनी आरम्भ हो जाती है ..अंतिम संस्कार का अधिकार हमारे वेद पुराणों के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र को दिया गया है जिसे कभी कभी संयोग या सुविधा की दृष्टि से कोई और भी अंजाम दे देता है और अंतिम संस्कार करने वाले की वहां उपस्थिति को ऐसी स्थिति को देखते हुए अनिवार्यता कह सकते हैं किन्तु परिवहन क्रांति /संचार क्रांति का एक व्यापक प्रभाव यहाँ भी पड़ा है अब बहुत दूर दूर बैठे नातेदारों की प्रतीक्षा भी अंतिम संस्कार में देरी कराती है और संचार क्रांति के कारण जिन जिन को सूचना दी जाती है उन सभी की उपस्थिति की अपेक्षा भी की जाती है न केवल उनके अंतिम दर्शन के भाव को देखते हुए बल्कि अपने यहाँ आदमियों की भीड़ को बढ़ाने के लिए भी जिसमे विशेष स्थान गाड़ियों का है क्योंकि आज गाड़ियाँ इतनी ज्यादा हो गयी हैं कि आज हर कोई बसों की असुविधा को देखते हुए इनका ही इस्तेमाल कर रहा है .और परिणाम यह है कि जो कार्य उस वक़्त शीघ्रता शीघ्र संपन्न होना चाहिए उस ओर विलम्ब प्रक्रिया बढती ही जाती है .
अभी हाल में ही हमारे पड़ोस में  एक बुजुर्ग जिनकी आयु लगभग ८७ वर्ष थी ,का दिन में लगभग ३ बजे निधन हो गया अब बुजुर्ग थे तो अच्छा खासा खानदान लिए बैठे थे तमाम परिवारी जन पास ही मौजूद थे अंतिम क्रिया जिसे करनी थी उस बेटे के घर पर ही उन्होंने अपने प्राण त्यागे थे किन्तु दो बेटे जो और हैं उनमे से एक बेटा व् एक बेटी उस दिन नहीं पहुँच पाए इसलिए अंतिम क्रिया अगले दिन के लिए टाल दी गयी .अब जहाँ तक भावुकता की बात की जाये तो ऐसे उदाहरण  भी हैं जिसमे मृत शरीर को उनके परिजनों ने लम्बे समय तक अपने पास ही रखा उनका अंतिम संस्कार करने की वे हिम्मत ही नहीं जुटा पाए और ऐसे भाव ही अधिकांश लोग रखते हैं और इसलिए ही कहते हैं कि बेटे बेटी को अंतिम दर्शन का अधिकार है उनसे यह अधिकार नहीं छीना जाना चाहिए और इसलिए यह प्रतीक्षा गलत नहीं है किन्तु मैं पूछती हूँ कि ये अंतिम दर्शन कहा ही क्यूं जाता है ?क्या हमारे बड़ों का जो अंश हममे है और उनके प्रति जो श्रृद्धा व् जो सम्मान हममे है क्या वह बस यहीं ख़त्म हो जाता है ?क्या इस तरह हम यहाँ उन्हें वास्तव में अपने से बिल्कुल अलग नहीं कर देते  हैं ?उनके विचारों को सम्मान देकर उन्हें याद रखकर जो ख़ुशी हम उन्हें जीते जी दे सकते हैं क्या उसका लेशमात्र भी इस दिखावे में है ?
    शरीर से जब प्राण निकल जाते हैं तो वह मात्र देह होती है जो जितनी जल्दी हो सके जिन तत्वों से मिलकर बनी है उनमे मिल जानी चाहिए अन्यथा विलम्ब द्वारा हम उस शरीर की दुर्गति ही करते हैं जिसके अंतिम दर्शनों के नाम पर हम उसका सम्मान करने को एकत्रित होते हैं .आज परिवहन व् संचार क्रांति ने ये संभव कर दिया है तो हम ऐसे मौकों पर दूर-दराज के नाते रिश्तेदारों को भी इस कार्य में जोड़ लेते हैं .ऐसे में  यदि देखा जाये तो महाराजा दशरथ के अंतिम संस्कार भी चौदह वर्ष बाद ही किया जाना चाहिए था क्योंकि उनके दो पुत्र उनके पास नहीं थे और उन्हें भी तो अपने पिता के अंतिम दर्शन का अधिकार था किन्तु तब न तो परिवहन के इतने सुलभ साधन थे और न ही सूचना के लिए हर हाथ में मोबाइल ,तो भगवान राम व् अनुज लक्ष्मण को इस अधिकार से वंचित रहना पड़ा और जहाँ तक मृत शरीर को अंतिम प्रणाम कर हम मृतात्मा के प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित करते हैं तो यह मात्र प्रदर्शन है क्योंकि आत्मा कभी नहीं मरती .श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय २ के श्लोक २० में कहा गया है -
''न जायते म्रियते वा कदाचि-
    न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः .
अजो नित्यः शाश्वतो$यं  पुराणों
    न हन्यते हन्यमाने शरीरे .२०.''

[यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है ;क्योंकि यह अजन्मा ,नित्य ,सनातन और पुरातन है ;शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता .]
इस प्रकार भले ही शरीर रूप में कोई हमारा हमसे अलग हो गया हो किन्तु हमसे वह आत्मा रूप में कभी अलग नहीं होता और न ही हम ऐसा मान सकते हैं इसलिए ऐसे में जिस आपा-धापी में अंतिम दर्शन के नाम पर हम अंतिम संस्कार के लिए जाने में भीड़ बढ़ाते हैं वह महज एक दिखावा है और कुछ नहीं .कविवर गोपाल दास ''नीरज''ने भी कहा है -
''किसके रोने से कौन रुका है कभी यहाँ ,
जाने को ही सब आयें हैं सब जायेंगे .
चलने की तैयारी ही तो बस जीवन है ,
कुछ सुबह गए कुछ डेरा शाम उठाएंगे .''
  शालिनी कौशिक
      [कौशल]

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आपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज बुधवार (21-02-2018) को
"सुधरा है परिवेश" (चर्चा अंक-2886)
पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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