ये गाँधी के सपनों का भारत नहीं .
ये गाँधी के सपनों का भारत नहीं .
के .एन .कौल कहते हैं -
महात्मा गाँधी जी ने कहा था कि -;;पाप से घृणा करो ,पापी से नहीं .''और हम इस कथन पर अमल करें या नहीं किन्तु अपराध किये जाने पर १८ महीने जेल की सजा भुगत चुके संजय दत्त जो २० साल से सुधारात्मक राह पर चल पड़े हैं और एक सभ्य नागरिक के रूप में अपने प्रशंसकों को आदर्श समाज की स्थापना के लिए प्रेरित कर रहे हैं ,को जेल में धकेल कर तो यही साबित कर रहे हैं कि भारत आज गाँधी के सपनो का भारत नहीं क्योंकि यहाँ पाप से नहीं पापी से ही घृणा की जाती है .अंत में लक्ष्मी शंकर वाजपेयी जी के शब्दों में यही कहूँगी -''जो जहाँ है ,वहीँ पर परेशान है ,
वक़्त सब पर बराबर मेहरबान है ,
पूरी दुनिया की रखता हूँ यूँ तो खबर ,
आदमी सिर्फ अपने से अंजान है ,
बेरुखी ही मिलेगी यहाँ हर तरफ ,
ये शहर है ,यही इसकी पहचान है ,
जिसपे मिलते थे इंसानियत के कदम ,
वो सड़क दूर तक आज वीरान है .''
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
''खुद रह गया खुदा भूल गया ,
भूलना किसको था क्या भूल गया .
याद हैं मुझको तेरी बातें लेकिन ,
तू ही कुछ अपना कहा भूल गया .''
देश के संविधान का संरक्षक उच्चतम न्यायालय स्वयं नियम बनाता है और तोड़ता है .वक़्त का परिवर्तन उसे इसके लिए विवश करता है किन्तु जब सुधार की ओर बढ़ते कदम रोक दिए जाते हैं तो विवाद उठने स्वाभाविक हैं .
मो. गयासुद्दीन बनाम स्टेट ऑफ़ यू.पी.ए.आई.आर.१९७७ अस.सी. १९२६ ,१९२९ में उच्चतम न्यायालय कहता है -
''अपराध एक व्याधिकृत [PATHOLOGICAL ] पथ भ्रष्टता [ABERRATION ]है ,अपराधी का साधारणतया उद्धार किया जा सकता है .राज्य को प्रतिशोध की बजाय पुनर्वास [REHABILITATE ] करना है निम्न मनः संस्कृति [sub -culture ] जो समाज विरोधी आचरण की ओर ले जाती है ,का निराकरण असम्यक निर्दयता से नहीं अपितु पुनः संस्कृतिकरण से किया जाना है .इसलिए दंड शास्त्र में दिलचस्पी का केंद्र बिंदु व्यक्ति है और उद्देश्य समाज के लिए उसका उद्धार करना है .कठोर और बर्बर दंड देना भूतकाल और प्रतिगामी काल की यादगार है .आज मानव दंडादेश को उस मनुष्य की पुनर्निर्माण की प्रक्रिया के रूप में लेता है जिसका पतन अपराध करने में हो गया है और सामाजिक प्रतिरक्षा के एक साधन के रूप में अपराधी पुनर्वास में आधुनिक समाज का प्राथमिक हित है .इसलिए आतंक के बजाय एक चिकित्सीय दृष्टिकोण हमारे दंड न्यायालयों द्वारा ग्रहण किया जाना चाहिए क्योंकि व्यक्ति का पशु की तरह बंदी बनाया जाना उसके मस्तिष्क को मरोड़ देता है .''और अपने इसी मत का अनुसरण उच्चतम न्यायालय ने राकेश कुमार बनाम बी.एल.विग ,सु. सेन्ट्रल जेल तिहाड़ ए.आई.आर १९८१ एस.सी.१९६७ में किया जब उसने यह कहा कि -''दंडादेश का दांडिक प्रयोजन सुधारात्मक है .''
ऐसे में संजय दत्त को उनके अपराध के लिए जेल भेज दिए जाने में उच्चतम न्यायालय को कौन सा सुधार नज़र आया है यह हम नहीं कह सकते हाँ इतना अवश्य कह सकते हैं कि उन्हें जेल भेजकर उच्चतम न्यायालय ने सुधार की ओर बढ़ते एक मस्तिष्क को मोड़ने का प्रयास अवश्य किया है .
वक़्त सब पर बराबर मेहरबान है ,
पूरी दुनिया की रखता हूँ यूँ तो खबर ,
आदमी सिर्फ अपने से अंजान है ,
बेरुखी ही मिलेगी यहाँ हर तरफ ,
ये शहर है ,यही इसकी पहचान है ,
जिसपे मिलते थे इंसानियत के कदम ,
वो सड़क दूर तक आज वीरान है .''
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
टिप्पणियाँ
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज शुक्रवार (17-05-2013) के राजनितिक वंशवाद की फलती फूलती वंशबेल : चर्चा मंच-...1247 में मयंक का कोना पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सूचनार्थ!
मैं सहमत हूं, मुझे लगता है कि संजय के मामले में दिमाग से नहीं दिल से सोचा जाना चाहिए था।
मुझे लगता है कि जजों को भी अब संजय से शिकायत नहीं है, लेकिन "कानून सबके लिए बराबर" है का संदेश देने के लिए संजय को जेल भेजा गया है।
उसी प्रकार एक अपराधी यदि समाज के बीच खुला
घूमें तो सारा समाज गंदा हो जाता है......
उसी प्रकार एक अपराधी यदि समाज के बीच खुला
घूमें तो सारा समाज गंदा हो जाता है......
मुझे साझा करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया !
मुझे साझा करने के लिएबहुत बहुत शुक्रिया !
मुझे साझा करने के लिएबहुत बहुत शुक्रिया !
बिक जाती हैं कलियाँ भी काँटों की दुकानों में...
हम यहाँ श्री महेंद्र श्रीवास्तव जी के कथन से सहमत हैं..यूँ भी यह क़ानूनी मसला है और उच्चतम न्यायालय का फैंसला है...वैसे भी प्रायश्चित से सजा कम हो सकती है या कुछ एनी रियायतें दी जा सकती हैं (जैसा की इस केस में हुआ भी है) पर गुनाह को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता...
"कानून सबके लिए बराबर" है
डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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