क़त्ल करने मुझे देखो , कब्र में घुस के बैठे हैं .
नहीं वे जानते मुझको, दुश्मनी करके बैठे हैं ,
मेरे कुछ मिलने वाले भी, उन्हीं से मिलके बैठे हैं ,
समझकर वे मुझे कायर, बहुत खुश हो रहे नादाँ
क़त्ल करने मुझे देखो , कब्र में घुस के बैठे हैं .
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गिला वे कर रहे आकर , हमारे गुमसुम रहने का ,
गुलूबंद को जो कानों से , लपेटे अपने बैठे हैं .
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हमें गुस्ताख़ कहते हैं , गुनाह ऊँगली पे गिनवाएं ,
सवेरे से जो रातों तक , गालियाँ दे के बैठे हैं .
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नतीजा उनसे मिलने का , आज है सामने आया ,
पड़े हम जेल में आकर , वे घर हुक्का ले बैठे हैं .
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रखे जो रंजिशें दिल में , कभी न वो बदलता है ,
भले ही अपने होठों पर , तबस्सुम ले के बैठे है .
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नज़ीर ''शालिनी '' की ये , नज़रअंदाज़ मत करना ,
कहीं न कहना पड़ जाये , मियां तो लुट के बैठे हैं .
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शालिनी कौशिक
[कौशल ]
टिप्पणियाँ
अच्छे शेर ,अच्छी गजल
धन्यवाद!