''हे प्रभु अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो .''


 कई बार पहले भी देख चुकी 'चक दे इंडिया' को फिर एक बार देख रही थी .बार बार कटु शब्दों से भारतीय नारी का अपमान किया गया किन्तु एक वाकया जिसने वाकई सोचने को मजबूर कर दिया और भारतीय नारी की वास्तविक स्थिति को सामने लाकर खड़ा कर दिया वह वाक्य कहा था फ़िल्म में क्रिकेट खिलाडी अभिमन्यु सिंह ने चंडीगढ़ की हॉकी खिलाडी प्रीति से ,

''हार जाओगी तो मेरी बीवी बनोगी ,जीत जाओगी तो भी मेरी बीवी बनोगी ऐसा तो नहीं है कि वर्ल्ड कप से से आओगी तो सारा हिंदुस्तान तुम्हारा नाम जप रहा होगा .''
कितना बड़ा सच कहा अभिमन्यु ने और इससे हटकर भारतीय नारी की स्थिति और है भी क्या ,फ़िल्म में काम करती है तो हीरो के बराबर मेहनत किन्तु मेहनताना कम ,खेल में खेलने में बराबर मेहनत किन्तु पुरुष खिलाडी के मुकाबले कम मैच फीस .खेलों में क्रिकेट में पुरुष टीम भी और महिला टीम भी किन्तु पुरुष टीम के पीछे पूरा भारत पागल और महिला टीम के प्रति स्वयं महिला भी नहीं .पुरुष टीम वर्ल्ड कप जीत लाये इसके लिए एक महिला [पूनम पांडे ] निर्वस्त्र तक होने को तैयार जबकि पुरुषों में महिला टीम के प्रदर्शन तक को लेकर कोई क्रेज़ नहीं .
हमारे एक अंकल की बेटी ने जब अंकल से कहा कि आपने हमारी पढाई के लिए कुछ नहीं किया जो किया मम्मी ने किया तो वे कहते हैं कि वह क्या कर सकती थी ,वह क्या एक भी पैसा कमाती थी ? ये है एक नारी के अपनी ज़िंदगी अपने परिवार के लिए ,बच्चों के लिए स्वाहा कर देने की कीमत कि उसके लिए उसके परिवार तक में उसके बीमार पड़ने पर कह दिया जाता है ''कि अपने कर्म भुगत रही है ''जबकि वही नारी जब अपने पति को बीमारी की गम्भीर अवस्था में देखती है तो अपनी ताकत से बाहर अपनी क्षमता जाग्रत करती है और सावित्री बन सत्यवान के प्राण तक यमराज से छीन लाती है .
आज हर तरफ महिलाएं छायी हुई हैं ,घर तो उनका कार्यक्षेत्र है ही और उनके बिना घर में गुजारा भी नहीं है ,गावों में खेतों में महिलाएं पुरुषों के साथ खेत पर मेहनत करती हैं और घर के भी सारे काम निबटाती हैं .शहरों में नौकरी भी करती हैं और सुबह को काम पर जाने से पहले और काम से आने के बाद भी घर के काम निबटाती हैं और कितने ही काम इनके ऑफिस से छुट्टी के दिन इकट्ठे रहते हैं अर्थात नौकरी से भले ही अवकाश हो किन्तु उनके लिए अवकाश नाम की चीज़ नहीं .छुट्टी वाले दिन जहाँ आदमी पैर पसार कर सोते हैं या सिनेमा हाल में फ़िल्म देख दोस्तों के साथ हंसी मजाक में व्यतीत करते हैं वहीँ महिलाएं हफ्ते भर के इकट्ठे गंदे कपडे धोती हैं ,मसाले तैयार करती हैं ,कपड़ों पर प्रैस आदि का काम करती हैं और इस सबके बावजूद उसकी अक्ल घुटनों में ,वह करती ही क्या है ,ऐसे विशेषणों से नवाज़ी जाती है ,उसी के जन्म पर आंसू बहाये जाते हैं और रोने वालों में पुरुषों से आगे बढ़कर नारियां ही होती हैं .
आज तक न तो पुरुष ने नारी की कद्र की और न नारी ने स्वयं नारी की ,दोनों के लिए ही वह बेकार है और ऐसी बेकार है जिसकी बहु रूप में तो आवश्यकता है बेटे का घर बसाने के लिए किन्तु बेटी रूप में नहीं ,माँ रूप में तो ज़रुरत है बच्चे के पालन पोषण के लिए किन्तु बच्चे के रूप में नहीं और इसलिए सही कहा अभिमन्यु सिंह ने कि नारी की एक ही नियति है ''पुरुष की गुलामी ''स्वयं करे या अपने परिजनों के कहने पर करे ,अरैंज करे या लिव इन में रहे हर हाल में उसे यही करना है और यदि नहीं करती है तो कुल्टा कह समाज में तिरस्कृत किया जाता है और ऐसे परिणाम से बचने के लिए भी वह पुरुष के ही वश में होती है और इसलिए शायद यही प्रार्थना करती है कि-हे प्रभु अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो .''
शालिनी कौशिक
[कौशल ]

टिप्पणियाँ

Ritu asooja rishikesh ने कहा…
Sahi likha hai Shalini ji
Sabse pehle to naari ko svayam apna
Samman karna aur karvna seekhna hoga
Jab naari aur purush dono hi smaaj ki gaadi ke do phiye hain to fir ek k bina bhi jeevan ki gaadi chalna sambhav nahi fir naari ka samman bhi brabar ka hona chhhiye.
Ritu asooja rishikesh ने कहा…
Sahi likha hai Shalini ji
Sabse pehle to naari ko svayam apna
Samman karna aur karvna seekhna hoga
Jab naari aur purush dono hi smaaj ki gaadi ke do phiye hain to fir ek k bina bhi jeevan ki gaadi chalna sambhav nahi fir naari ka samman bhi brabar ka hona chhhiye.
dj ने कहा…
मेरी पलकों की कोरें भिगो दी आपकी इस अभिव्यक्ति ने। ये बड़ी विडम्बना है और मेरी भी समझ के बाहर कि स्त्रियों की मानसिकता स्वयं के प्रति इतनी निम्न स्तर क्यों? एक बेटी होकर बेटी के जन्म से व्यथित हो जाने वाली महिलाओं की कमी ही नहीं हमारे देश में। न जाने ये सब कब बदलेगा

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