कैग [विनोद राय ] व् मुख्य निर्वाचन आयुक्त [टी.एन.शेषन ]की समझ व् संवैधानिक स्थिति का कोई मुकाबला नहीं .


 
 एक बहस सी छिड़ी हुई है इस मुद्दे पर कि कैग विनोद राय ने जो किया सही था या नहीं ?अधिकांश यही मानते हैं कि विनोद राय ने जो किया सही किया .आखिर  टी.एन.शेषन से पहले भी कौन जनता था चुनाव आयुक्तों को ?और यह केवल इसलिए क्योंकि एक लम्बे समय से कॉंग्रेस  नेतृत्व से जनता उकता चुकी है
और इस कारण जो बात भी कॉंग्रेस सरकार के खिलाफ जाती है उसका समर्थन करने में यह जनता जुट जाती है और दरकिनार कर देती है उस संविधान को भी जो हमारा सर्वोच्च कानून है और हमारे द्वारा समर्थित व् आत्मार्पित है . 
हमारे संविधान के अनुच्छेद १४९ के अनुसार -नियंत्रक महालेखा परीक्षक उन कर्तव्यों का पालन और ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगा जो संसद निर्मित विधि के द्वारा या उसके अधीन विहित किये जाएँ .जब तक संसद ऐसी कोई विधि पारित नहीं कर देती है तब तक वह ऐसे कर्तव्यों का पालन और ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगा जो संविधान लागू होने के पूर्व भारत के महालेखा परीक्षक को प्राप्त थे .
    इस प्रकार उसके दो प्रमुख कर्तव्य हैं -प्रथम ,एकाउंटेंट के रूप में वह भारत की संचित निधि में से निकली जाने वाली सभी रकमों पर नियंत्रण रखता है ;और दूसरे,ऑडिटर के रूप में वह संघ और राज्यों के सभी खर्चों की लेख परीक्षा करता है .वह संघ और राज्य के लेखों को ऐसे प्रारूप में रखेगा जो राष्ट्रपति भारत के नियंत्रक-महालेखा-परीक्षक की राय के पश्चात् विहित करे .
     संघ लेखा सम्बन्धी महा लेखापरीक्षक का प्रतिवेदन राष्ट्रपति के समक्ष  रखा जायेगा जो उसे संसद के समक्ष पेश करवाएगा .
  अब आते हैं मुख्य निर्वाचन आयुक्त की संवैधानिक स्थिति पर -मुख्य निर्वाचन आयुक्त निर्वाचन आयोग के कार्यों का सञ्चालन करता है और जो कि निर्वाचन आयोग के अध्यक्ष के रूप में कार्य करता है तब जब कोई अन्य निर्वाचन आयुक्त इस प्रकार नियुक्त किया जाता है [अनु.324-3]
   निर्वाचन आयोग एक स्वतंत्र निकाय है और संविधान इस बात को सुनिश्चित करता है कि जैसे उच्चतम न्यायालय [न्यायपालिका ]कार्यपालिका के हस्तक्षेप के बिना स्वतंत्र व् निष्पक्ष रूप से कार्य करता है वैसे ही निर्वाचन आयोग भी कर सके .
   अनुच्छेद ३२४ के अंतर्गत निर्वाचनों का निरीक्षण ,निर्देशन और नियंत्रण करना निर्वाचन आयोग का कार्य है.

      इस प्रकार अनु.३२४-१ के द्वारा प्रदत्त अधिकार इतने व्यापक हैं कि निर्वाचन आयोग के प्रधान के रूप में मुख्य निर्वाचन आयुक्त के अधिकारों को स्वयमेव ही परिभाषित कर देते हैं -
   -कन्हैय्या बनाम त्रिवेदी [१९८६] तथा जोसे बनाम सिवान [१९८७]के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा -कि अधीक्षण ,निदेशन व् नियंत्रण के अधिकार में यह निहित है कि निर्वाचन आयोग उन सभी आकस्मिकताओं में भी ,जिनका विधि में उपबंध नहीं किया गया है ,कार्य करने की शक्ति रखता है . 

 -महेन्द्र बनाम मुख्य निर्वाचन आयुक्त [१९७८] के वाद में स्पष्ट किया गया है कि -उसे निर्वाचन के सञ्चालन के लिए आवश्यक आदेश ,जिनमे पुनः मतदान कराने या न कराने का आदेश भी सम्मिलित है ,पारित करने का अधिकार है ,राजनीतिक दलों के प्रतीक के आवंटन से सम्बंधित विवादों पर निर्णय  देने तथा राजनीतिक दलों को मान्यता देने या उसे समाप्त करने का अधिकार भी निर्वाचन आयुक्त को है [सादिक अली बनाम निर्वाचन आयुक्त १९७२]
   इस प्रकार २१ जून १९९१ को राजीव गाँधी की हत्या के बाद चुनाव का अगला दौर तीन सप्ताह के लिए स्थगित करना ,पंजाब विधान सभा चुनाव मतदान से ठीक एक दिन पहले स्थगित करना ,आंध्र व् पश्चिम बंगाल में मुख्य चुनाव अधिकारी की नियुक्ति के सम्बन्ध में राष्ट्रपति को पत्र लिखकर आरोप लगाना ''कि पश्चिम बंगाल में संवैधानिक तंत्र पूरी तरह से टूट गया है '',केरल के ओट्टापलम व् मद्रास के पालानी के चुनाव स्थगन आदि जो भी कार्य शेषन द्वारा किये गए वे निर्वाचन  आयोग के कार्यों के रूप में शेषन को अधिकार रूप में प्राप्त थे उनका एक कार्य भी संवैधानिक मर्यादा से बाहर जाकर नहीं किया गया था हाँ ये ज़रूर है कि उन्होंने जिस तरह से अपने अधिकारों का प्रयोग किया उस तरह से उनसे पहले के चुनाव आयुक्तों ने नहीं किया था इसलिए वे  सत्ता के लिए सिरदर्द बने और उनपर नियंत्रण के लिए ही दो और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की गयी .
     और कैग जिन्हें भारत की संचित निधि से निकाली जाने वाली सभी रकमों पर नियंत्रण का अधिकार है वे अपनी शक्ति को महत्व न देते हुए कहते हैं -'' कि सिविल सोसायटी  की अधिकाधिक रुचि को मद्देनज़र रखते हुए क्या हमारा काम केवल सरकारी खर्च का हिसाब किताब जांचने और रिपोर्ट संसद पटल पर रखने तक ही सीमित है ?''
   पहले के निर्वाचन आयुक्तों की अपेक्षा जैसे शेषन ने अपने अधिकारों में से ही अपने कार्य करने की शक्ति ढूंढी विनोद राय क्यों नहीं देखते ?क्या नहीं जानते कि सारी विश्व व्यवस्था पैसे पर टिकी है और वे जिस पद पर हैं उसके हाथ में ही सारे पैसे का नियंत्रण है .भले ही वे खुद को मात्र एकाउंटैंट ही समझें किन्तु इस पद पर होकर क्षुब्ध होने जैसी कोई बात नहीं है .सरकार के उचित अनुचित खर्चों का नियंत्रण उनके हाथ में है इस प्रकार सरकारी गतिविधियों पर अंकुश लगाना उनके बाएं हाथ का खेल है.इस प्रकार वे सरकारी धन का सदुपयोग  कर सकते हैं और उसकी बिल्कुल सही  निष्पक्ष रिपोर्ट सदन के पटल पर रखकर संवैधानिक निष्ठां की जिम्मेदारी भी पूरी कर सकते हैं .अन्य राष्ट्रों में महालेखा परीक्षकों को प्राप्त उच्च स्थान को लेकर उनका क्षोभ इसलिए मान्य नहीं किया जा सकता क्योंकि वे एक महत्वपूर्ण संवैधानिक पद धारण करते हैं .आज जो विपक्षी दल उनके अमेरिका के हार्वर्ड केनेडी स्कूल में दिए गए भाषण को उनकी वर्तमान व्यवस्था के प्रति नाराजगी के रूप में व्यक्त कर उनका समर्थन कर रहे हैं उन्हें उनकी संवैधानिक स्थिति में जो बदलाव वे चाहते हैं वैसे संशोधन के प्रस्ताव का कथन भी उनसे करना चाहिए और उसकी जोरदार आवाज़ भी उनके द्वारा उठाई जानी चाहिए ताकि उनका सच्चा समर्थन विनोद राय के प्रति अर्थात एक महालेखा परीक्षक की संवैधानिक स्थिति की मजबूती के प्रति सही रूप में प्रकट हो सके और यह भी दिखाई दे जाये  कि  वे वास्तव में इस स्थिति में  बदलाव चाहते हैं न कि सत्ता की नकेल कसने को ऐसा कर रहे हैं .
    क्योंकि यदि ऐसा कोई संशोधन लाया जाता है तो संविधान  के  अध्याय ५ से सम्बंधित होने के कारण सदन के कुल सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित व् मतदान करने वाले दो तिहाई सदस्यों के मत के साथ आधे राज्यों के विधान मंडल द्वारा पारित होकर अनुसमर्थन भी आवश्यक है जिस पर राष्ट्रपति की अनुमति के पश्चात् यह अनु.३६८ के अंतर्गत एक संशोधन के रूप मान्य होगा . 
    फिर एक तरफ विनोद राय कहते हैं कि लोकलेखा की परंपरागत भूमिका वित्तीय लेनदेन की जाँच-पड़ताल करना है पर क्या आम आदमी के इससे कोई सरोकार नहीं कि सरकार धन को कैसे खर्च करती है ?और दूसरी तरफ वे कहते हैं कि हम अपने लेखा परीक्षण आकलनों में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों को व्यापकता प्रदान करने के लिए संलग्नक के तौर पर छोटी पुस्तिकाएं और रिपोर्ट तैयार करते हैं .इनसे विषय विशेष पर लोगों को तमाम महत्वपूर्ण सन्दर्भ जानकारी भी मिल जाती है और उनकी जागरूकता भी बढती है .नतीजतन वे सरकार से बेहतर योजनायें और उनके क्रियान्वयन की मांग करते हैं .
   ये महत्वपूर्ण कार्य जो वे अपनी संवैधानिक मर्यादा के अधीन रहकर कर रहे हैं और आज के भारत का सूचना का अधिकार अधिनियम २००५ जिसके  अनुच्छेद २-ज के अंतर्गत जनता -
 -कार्यों ,दस्तावेजों,अभिलेखों का निरीक्षण कर सकती है .
-दस्तावेजों या अभिलेखों की प्रमाणित प्रतिलिपियाँ ले सकती है .

 -सामग्री के प्रमाणित नमूने ले सकती है .
-यदि सूचना कम्पूटर व् अन्य तरीके से रखी गयी  है तो डिस्केट ,फ्लॉपी ,टेप ,वीडियो कैसिट या अन्य इलेक्ट्रोनिक माध्यम या प्रिंट आउट के रूप में सूचना प्राप्त कर सकती है .

      साथ ही जनलोकपाल पर जनता की उमड़ी भीड़ ,क्या इसके बाद भी जनता के जीवन स्तर में सुधार की आड़ ले उनका इस तरह का संवैधानिक मर्यादा का हनन उन्हें शोभा देता है ?राजनीतिक विरोध या राजनैतिक पक्षपात के आधार पर हम इनके कार्यों को गलत सही का आकलन नहीं कर सकते .यूँ तो शेषन पर भी चंद्रशेखर सरकार,राजीव गाँधी सरकार के करीबी होने के व् उन्हें फायदा पहुँचाने के आरोप लगते रहे तब भी उन्होंने जो भी किया अपने पद की गरिमा व् मर्यादा के अनुकूल किया ऐसे ही विनोद राय पर भी यही आरोप लग रहे हैं कि ''ये भाजपा के करीब हैं और आने वाले समय में उनकी सरकार की संभाव्यता देखकर ही ऐसे अनुचित कार्य कर रहे हैं .''किन्तु ये तो उन्हें ही देखना होगा कि जो कार्य वे कर रहे हैं वह न तो जनता के हित में है न देश हित में कि विदेश में जाकर भारतीय राजनीति पर कीचड उछाली जाये .२३ मई 1991 को शेषन ने एक समाचार पत्र को दिए साक्षात्कार में अनुशासनात्मक शक्तियां संविधान के अंतर्गत लेने के लिए पंजाब चुनावों का कच्चा चिटठा खोलने का दबाव बनाया किन्तु वह जो उन्होंने किया देश के अन्दर किया न कि विनोद राय की तरह ,जिन्होंने अपने देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होते हुए भी विदेशी राष्ट्र में अपनी क्षुब्धता की अभिव्यक्ति की इसलिए यही कहना पड़ रहा है कि  कैग [विनोद राय ] व् मुख्य निर्वाचन आयुक्त [टी.एन.शेषन ]की समझ व् संवैधानिक स्थिति का कोई मुकाबला नहीं .        
        शालिनी कौशिक
             [कौशल ]


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