कमज़र्फ़ के एहसान से अल्लाह बचाये...

"डिग्री, मेहनत और योग्यता, रखी रही बेकार गयी, 
उनकी हर तिकड़म रंग लाई, हमें शराफत मार गई." 
           सत्ताधारी दल के सामने विपक्ष की यह बेबसी जग जाहिर है. विपक्ष सत्ताधारी दल को हमेशा देश के कानून की पेचीदगियां बता-बताकर उसे बार-बार चेताकर इस कोशिश में लगा रहता है कि किसी तरह उसे सत्ता का नाजायज फायदा उठाने से रोक दिया जाये किन्तु एेसा संभव नहीं हो पाता, सत्ता की ताकत से सत्ताधारी दल मदमस्त हाथी की तरह सबको कुचलता चलता है और अपनी हर हार को जीत में तब्दील करने के लिए मौजूदा कानून के और पूर्व स्थापित आदर्शों के उल्लंघन से भी गुरेज नहीं करता. 
          आज देश में पांच राज्यों में चुनावी आहट शुरू हो चुकी है और भारतीय संविधान में भारत को 'राज्यों का संघ' कहा गया है. डी. डी. बसु के अनुसार - "भारत का संविधान एकातमक तथा संघातमक का सम्मिश्रण है." और के. सी. विहयर के अनुसार - "भारत का संविधान संघीय कम और एकातमक अधिक है." व इसकी मुख्य बात यह है कि इसमें इकाईयों को अर्थात राज्यों को संघ से पृथक होने की स्वतंत्रता नहीं है, स्पष्ट है कि राज्य पूरी तरह से केन्द्र का अंग हैं ऐसे में केन्द्र में घट रही किसी भी गतिविधि का राज्य पर प्रभाव पडने से इंकार नहीं किया जा सकता. 
        4जनवरी 2017 को उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, मणिपुर में चुनावी शंखनाद बज गया और इसका पहला असर यह हुआ कि चुनाव आचार संहिता लागू हो गई फलस्वरूप चुनावी बखान करने वाले होर्डिंग्स उतरने शुरू हो गये. बिना चुनाव आयोग की अनुमति के सरकार नियुक्तियां व तबादले नहीं कर सकेगी. उदघाटन व शिलान्यास तथा वित्तीय स्वीकृतियां जारी नहीं हो सकेंगे. चुनावी दौरे के लिए मंत्रियों को सरकारी वाहनों आदि के इस्तेमाल की भी अनुमति नहीं होगी. इतनी सारी रोक किन्तु जहां आ गई केन्द्रीय बजट द्वारा जनता पर सत्ताधारी दल के प्रभाव पडने की बात, तो हर आचार संहिता धरी की धरी रह गई. पैसा जो मानवीय कमजोरी रहा है, जीवन का आवश्यक पक्ष  है और जिसे लेकर पूरे विश्व में अव्यवस्था कभी भी मच सकती है और अभी पैसे को लेकर ही अव्यवस्था नोटबंदी के रूप में देश में मची और अब भी जारी है, उस पर भी विपक्ष द्वारा शिकायत करने पर भी कोई समुचित कार्यवाही नहीं की जा रही. 
       प्राप्त जानकारी के अनुसार, चुनाव आयोग सरकार को यह सलाह जरूर दे सकता है कि बजट पेश करने के दौरान वह लोकलुभावन घोषणाओं से बचे किन्तु आम बजट की तारीख बदलवाने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को है और राष्ट्रपति ने राज्य सभा की बैठक 31 जनवरी को ही बुलाकर स्वयं के "रबर स्टैंप" होने का पुख्ता सबूत दे दिया है. अपने को देश की सबसे काबिल सरकार साबित करने में जुटी भाजपा सरकार सभी आदर्शों को ताक पर रखने में जुटी है. ऐसा नहीं है कि वह पहली सरकार है जिसके सिर पर बजट पेश करने के समय राज्यों में चुनावों की चुनौती सामने खड़ी हुई हैं जबकि यह देश में अब तक स्थापित आदर्शो पर भाग्य की मार कहें या दुर्भाग्य की ( ऐसा ही कहना पडेगा क्योंकि भीतर भ्रष्ट मन धारण कर भी स्वयं को ईमानदार, देशभक्त कहलाने की कवायद में लगी यह भाजपानीत सरकार अपने हर कदम को अनोखा व देश के हित का दिखा रही है चाहे आग लगी हो या बाढ आई हो, सब कुछ देश के लिये जरूरी दिखाया जा रहा है) कहा भी है -
 " चांद में आग हो तो गगन क्या करे, 
   फूल ही उग्र हो तो चमन क्या करे, 
    रोकर ये कहता है मेरा तिरंगा
   कुर्सियां ही भ्रष्ट हों तो वतन क्या करे? " 
      अपनी पूर्व सरकार की नालायकी का फायदा उठाकर  सत्ता में पहुंच गई है और अब जी-जान से उसी रंग में लिपट उन्हीं कारगुजारियों में जुटी है. पूर्व सरकार की नालायकी से प्रेरित ये सरकार उसके आदर्शों से कुछ नहीं ले रही है, जबकि पूर्व में ही कांग्रेस सरकार इस संबंध में आदर्श प्रस्तुत कर चुकी है, जो कि इस सरकार के अनुसार देश को विश्व मंच पर सिरमौर के रूप में खडा होने की योग्यता देने के बाद भी एक गई गुजरी सरकार रही है, राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद के अनुसार - "2012 में जब पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान विपक्ष ने आपत्ति जताई थी तो कांग्रेस ने उनका अनुरोध स्वीकार कर केन्द्रीय बजट की तिथि 28 फरवरी से बदलकर 16 मार्च कर दी थी." 
      लेकिन कहते हैं न गुरु गुड चेला शक्कर, सही है अब ये सरकार शक्कर के रूप में रिकार्ड बनायेगी और सेर को सवा सेर लौटायेगी, ये सरकार पूर्व की गलतियों को दोहराने के मूड में नहीं है और इस सरकार के अनुसार हाथ आई मछली को हाथ से निकल जाने देना गलती ही तो है, जो पूर्व की सरकार कर चुकी है. देश के कानून ने राष्ट्रपति को जो स्थिति दी है उसे "रबर स्टैंप" की स्थिति संविधानविदों द्वारा कहा जाता है, राष्ट्रपति यहां नाममात्र का प्रधान है और असली प्रधानता जहाँ है वहां से नियमों की अनदेखी की जा रही है, कानून चुप है, कानून के सिपहसालार चुप हैं -
 "गलत है कि रोटी हम खा रहे हैं, 
हकीकत में रोटी हमें खा रही है." 
     बडी बडी बातें करने वाले आज केवल अपने बड़े हित साधने पर ही आ गये हैं और उसे देशहित का नाम दे जरूरी दिखा हम पर उपकार के रूप में प्रदर्शित कर रहे हैं जबकि हम तो अब बस हफीज मेरठी के शब्दों में ये ही कह सकते हैं -
 " कैसी भी मुसीबत हो, बडे शौक से आये, 
कमज़र्फ़  के एहसान से अल्लाह बचाये. " 

शालिनी कौशिक
 ( कौशल)

टिप्पणियाँ

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (12-01-2017) को "अफ़साने और भी हैं" (चर्चा अंक-2579) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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