... पता ही नहीं चला.


बारिश की बूंदे 
गिरती लगातार 
रोक देती हैं 
गति जिंदगी की 
और बहा ले जाती हैं 
अपने साथ 
कभी दर्द 
तो 
कभी खुशी भी 
वक्त संग संग 
बहता है 
और नहीं 
रूकता 
अपनी 
आदत के अनुसार 
और बूंदे 
कभी 
दर्द मिटाती हैं 
कभी 
खुशी चुराती हैं 
और कैसे वक्त को 
बहा ले जाती हैं 
कुछ ऐसे 
कि 
मुंह से बस 
यही 
निकलता है 
कि 
कब वक्त 
बीत गया 
पता ही नहीं चला. 

शालिनी कौशिक 
(कौशल) 

टिप्पणियाँ

Anita ने कहा…
वक्त की रफ्तार को कौन रोक सकता है..बेहोशी में जीने वाला मन वक्त की कीमत नहीं जान पाता और नदिया के जल की तरह यूँही बहता रहता है वक्त का दरिया..
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (24-08-2017) को "नमन तुम्हें हे सिद्धि विनायक" (चर्चा अंक 2706) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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