पूंजीवादी पंजे में कैद बार कौंसिल ऑफ़ उत्तर प्रदेश की चुनाव प्रकिया
बार कौंसिल ऑफ़ उत्तर प्रदेश के 2025-26 के चुनावों के लिए नामांकन का कार्य आरम्भ हो चुका है. बड़े स्तर पर लगभग 3 महीने से सदस्य पद के प्रत्याशी प्रचार कार्य का श्री गणेश कर चुके हैँ. जगह जगह कचहरी में लगे हुए प्रत्याशियों के पोस्टर इसकी गवाही दे रहे हैँ.
उत्तर प्रदेश बार काउंसिल का चुनाव वकीलों के सबसे बड़े लोकतांत्रिक चुनावों में से एक माना जाता है. इस चुनाव में अधिवक्ता केवल एक ही श्रेणी के पद के लिए मतदान करते हैं. ये पद बार काउंसिल के सदस्य होते हैं. प्रदेश में कुल 25 सदस्यों का चुनाव किया जाता है.
मतदाता अधिवक्ताओं का सीधा वोट सिर्फ बार काउंसिल के सदस्यों के लिए ही डाला जाता है. अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के लिए अलग से चुनाव नहीं होता.प्रदेश भर के वकीलों को अपनी सर्वोच्च संस्था के लिए अध्यक्ष या उपाध्यक्ष प्रत्यक्ष रूप से चुनने का अधिकार नहीं होता. चुने गए 25 सदस्य ही अपने बीच वोटिंग कर दोनों पदों का चयन करते हैं.
बार काउंसिल में चेयरमैन, वाइस चेयरमैन, अनुशासन समितियों के चेयरपर्सन, वित्त, चुनाव, नामांकन और कल्याण जैसी स्थायी समितियों के पद सीधे मतदान से नहीं भरे जाते. इन पदों का चयन काउंसिल के चुने हुए सदस्य आंतरिक मतदान से करते हैं. यानी मतदाता अधिवक्ता केवल काउंसिल की मुख्य इकाई यानी 25 सदस्यों को चुनते हैं, किन्तु बार काउंसिल की कमान और अन्य सभी जिम्मेदारियां ये चुने गए 25 सदस्य ही निर्धारित करते हैँ.
ये बेहद आश्चर्य की बात है कि बार कौंसिल के चुनावों में मतदाता अधिवक्ताओं को देश के राष्ट्रपति चुनावों की तरह अप्रत्यक्ष मतदान प्रणाली से जोड़ा गया है जिसमें उन्हें प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति को चुनने का अधिकार नहीं होता और वह सत्ता में बैठी पार्टी के लिए मात्र रबर स्टैंम्प बनकर रह जाता है. इसी तरह हम अगर बार कॉन्सिल की बात करते हैं तो बार कॉन्सिल के सदस्य भी मात्र चुनाव जीतने तक ही प्रदेश के अधिवक्ताओं के सम्पर्क में रहते हैं, चुनाव जीतने के बाद क्योंकि 5 साल तक सदस्यों को प्रदेश भर के अधिवक्ताओं की बार कॉन्सिल के अंदरूनी चुनावों में कोई जरुरत नहीं होती, इसीलिए बार कौंसिल का चेयरमेन चुनने के बाद उनसे कोई सम्पर्क रखने या उनका कोई कार्य करने की भी कोई व्यक्तिगत जिम्मेदारी सदस्य अपने ऊपर नहीं लेते, वहीं कुछ सदस्य अपने निजी ऑफिस मेंटेन करते हैं किन्तु न तो चेयरमेन और न ही सदस्य बार कौंसिल को जवाबदेह बनाते हैं और न ही उसकी कोई जवाबदेही तय करते हैं जिस कारण बार कौंसिल ऑफ़ उत्तर प्रदेश के मुख्यालय से दूर दराज के क्षेत्रों में बैठे अधिवक्ताओं के लिए अपने रजिस्ट्रेशन और सी ओ पी जैसे कार्यों की जानकारी प्राप्त करना भी मुश्किल हो जाता है. यही नहीं बार कॉन्सिल के चुनावों को लड़ना इतना महंगा बनाया गया है कि एक सामान्य अधिवक्ता तो इस बारे में सोच भी नहीं सकता. पहले तो पूरे यू पी के 1 लाख से ऊपर अधिवक्ताओं से सम्पर्क करना ही बहुत महंगा और कठिन कार्य है क्योंकि उत्तर प्रदेश इतना बड़ा राज्य है कि यहाँ पूरे प्रदेश के वकीलों से मिलने के लिए कम से कम 3-4 महीने चाहिए और ऊपर से पूरे प्रदेश में घूमने में समय देने पर प्राइवेट प्रेक्टिस ठप्प ही समझनी चाहिए, दूसरी ओर नामांकन के समय डेढ़ लाख रूपये जमा करना, प्रचार के लिए पोस्टर, पंफ्लैट और मिठाई आदि का खर्चा इनसे अलग ही है. ऐसे में कोई सामान्य अधिवक्ता तो इसके बारे में सोचने के लिए भी सक्षम नहीं है. इस तरह बार कॉन्सिल ऑफ़ उत्तर प्रदेश को भौतिक रूप से सम्पन्न अधिवक्ताओं के हाथ की कठपुतली कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.
बार कॉन्सिल ऑफ़ उत्तर प्रदेश के संदर्भ में उसके द्वारा प्रदेश भर की बार एसोसिएशन को लेकर बनाये गए नियम भी विवादास्पद ही कहे जायेंगे क्योंकि जहाँ एक तरफ बार एसोसिएशन के चुनाव हर वर्ष आयोजित कर कार्यकारिणी का गठन किया जाता है, बार एसोसिएशन में विजयी प्रत्याशियों को अगले वर्ष में भी उस पद पर लड़ने का अधिकार नहीं होता जिस पर वे विजयी रहे हों, वहीं बार कौंसिल के चुनाव 5 वर्ष की समय सीमा को पार करते हुए 7 वर्ष बाद भी हो सकते हैं और शायद यह समय सीमा भी न रहे यदि माननीय उच्चतम न्यायालय इसके लिए कड़े निर्देश जारी न करे और साथ ही, बार कॉन्सिल ऑफ़ उत्तर प्रदेश द्वारा स्वयं के सदस्यों के चुनाव लड़ने के संबंध में कोई दिशा निर्देश, नियम आदि नहीं बनाये गए.
आखिर क्यूँ? प्रदेश भर के अधिवक्ताओं की यह सर्वोच्च संस्था खुद उन्हीं नियमों के दायरे में क्यूँ नहीं आती, जिन नियमों के दायरे में यह अपनी अधीनस्थ बार एसोसिएशन को रखती है? क्यूँ बार कॉन्सिल के चुनावों में डेढ़ लाख जैसी भारी भरकम रकम की वसूली की जाती है? इन सभी सवालों के जवाब आज की पूंजीवादी व्यवस्था में ढूंढना मुश्किल नहीं है क्योंकि चारों तरफ " जिसकी लाठी उसकी भैंस " का शोर है और यही वह लाठी है जिससे सत्तासीनों द्वारा बार कौंसिल ऑफ़ उत्तर प्रदेश के चुनाव सम्पन्न होने से पहले प्रदेश भर की बार एसोसिएशन के चुनावों पर रोक लगाई गई है क्योंकि बार एसोसिएशन के चुनाव से बार कौंसिल के चुनाव प्रभावित होने की तकरीर तो स्वयं अधिवक्ताओं की ही समझ में नहीं आ रही है.
द्वारा
शालिनी कौशिक
एडवोकेट
कैराना (शामली)
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