व्यवस्था में सुधार होना ही चाहिए...

नित्यानंद जी का एक शेर है-
''उसे जो लिखना होता है वही वह लिखकर रहती है,
कलम को  सर कलम होने का बिलकुल डर नहीं होता.''
    आज यही बात मेरी लेखनी पर भी लागू होनी चाहिए क्योंकि आज मै इसके माध्यम से कुछ सरकारी व्यवस्थाओं पर ऊँगली उठाने जा रही हूँ जो मेरे दृष्टिकोण से सुधार चाहती है.
   बरेली में आई.टी.बी.पी.में ट्रेड मेन की भर्ती शहर ओर अभ्यर्थियों   के लिए जो स्थिति लेकर आयी सभी जानते हैं.२० अभ्यर्थी इस घटना में काल के गाल में समां चुके हैं ओर यदि इस तरह की व्यवस्था ही आगे भी जारी रहती है तो आगे भी ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता.
     इतनी बड़ी संख्या में अभ्यर्थियों को एक दिन ,एक स्थान पर एकत्रित करना ओर फिर उस परीक्षा को स्थगित कर देना प्रशासन के लिए एक सामान्य कार्य हो सकता है किन्तु यह अभ्यर्थियों के लिए सामान्य बात नहीं है क्योंकि अपनी जगह से अपने सभी काम-काज छोड़कर दूर आना और आने पर सब कुछ विफल हो जाना बर्दाश्त के बाहर है.प्रशासन पहले से ही ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं करता कि थोड़े थोड़े अभ्यर्थी बुलाये जाएँ और जो आयें वे अपनी परीक्षा देकर संतुष्ट होकर जाएँ.परीक्षा मै सफलता असफलता तो बाद की बात है किन्तु परीक्षा का न होना ऐसी स्थिति उनके सामने नहीं आनी चाहिए.दूसरी बात यह कि प्रशासन यदि चाहे तो ऐसी परीक्षाओं को एक जगह न कर कई जगह आयोजित कर सकता है जो कि अभ्यर्थियों के लिए भी सहज सुगम स्थान हो और उन्हें इसके लिए लम्बे सफ़र और ठहरने के इंतजाम के बारे में ना सोचना पड़े.
       प्रशासन को इस और ध्यान देकर इस तरह की घटनाओ की पुनरावृत्ति रोकनी होगी और यह प्रशासन के हाथ में है.पी.सी.एस. परीक्षाओं में भी दूर दूर के अभ्यर्थियों को बुला लिया जाता है जबकि प्रशासन यदि हर जिले पर इसका इंतजाम करे तो न तो इतनी भीड़ होगी और ना ही इतनी व्यवस्था करनी होगी किन्तु देखने में तो यह आता है कि प्रशासन जब तक की कोई बड़ा आन्दोलन न हो जब तक लोगों के द्वारा शहादत   न दे दी जाये किसी मसले को गंभीरता से लेता ही नहीं है.यूं.पी.में लगभग तीन दशक से अधिवक्ता हाईकोर्ट बेंच के लिए संघर्षरत हैं और उनकी ये मांग जायज भी है क्योंकि यूं.पी. बहुत बड़ा है और इस कारण गरीब व्यक्ति ,साधन रहित व्यक्ति,समय के अभाव वाला व्यक्ति अन्याय बर्दाश्त कर रहा है किन्तु कोर्ट की शरण में नहीं जा रहा क्योंकि मामले हाईकोर्ट पहुँचते हैं और दूर बैठे अधिवक्ता में सही गलत का पता नहीं चलता और ना वह मामले में नित्य हाज़िर हो सकता है .ऐसी मांग भी सरकार के द्वारा पूरी नहीं की जाती .सरकार क्यों लोगों को जनता को भड़कने पर विवश करती है जबकि ये जनता की सरकार है और इसको स्वयं भी सभी स्थितियों की जानकारी है.इसलिए मेरा कहना यह है कि व्यवस्था में सुधार होना ही चाहिए.कवि दुष्यंत के शब्दों में-
''हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए.
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.''
           

टिप्पणियाँ

Shikha Kaushik ने कहा…
बिलकुल सही कहा है आपने .बहुत अच्छी पोस्ट .प्रभावशाली अभिव्यक्ति .शुभकामनाये .
शालिनी जी आपकी पोस्ट बहुत पसंद आयी |बधाई
शालिनी जी आपकी पोस्ट बहुत पसंद आयी |बधाई
उम्मतें ने कहा…
बेरोजगारों की इसी फ़ौज में से येनकेन प्रकारेण छंट कर पहुंचे कुछ लोग प्रशासन तंत्र का हिस्सा बनते हैं और जब आयोजक होकर वे अपने बेरोजगार बंधु बांधवों की समस्याओं को अनदेखा करते हैं तो इस प्रवृत्ति को क्या कहा जाए ? किससे शिकायत की जाए ?

न्याय को जन पहुंच के दायरे में ही होना चाहिए ! चाहे खंडपीठ या फिर कोई और विकल्प यदि हो तो ,आपसे सहमत हूं !

आलेख में व्यक्त आपकी चिंताएं जायज़ हैं !
प्रभावी अभिव्यक्ति ...सच में सूरत बदलनी ही चाहिए ....
mridula pradhan ने कहा…
''उसे जो लिखना होता है वही वह लिखकर रहती है,
कलम को सर कलम होने का बिलकुल डर नहीं होता.''
bahut sahi bhi aur sunder bhi.

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