''बेंच दो या हटो सरकारों ''


 

बेंच को लेकर वकीलों की तालाबंदी,कचहरी गेट पर दिया धरना ,इलाहाबाद बार का पुतला फूंका ,वकीलों से झड़पें ऐसी सुर्खियां समाचारपत्रों की १९७९ से बनती रही हैं और अभी आगे भी बनते रहने की सम्भावना स्वयं हमारी अच्छे दिन लाने वाली सरकार ने स्पष्ट कर दी है क्योंकि केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद के पत्र पर बेंच गठन के लिए बनी कमेटी को ही भंग कर दिया गया है .
   पश्चिमी यूपी में हाईकोर्ट बेंच हमेशा से राजनैतिक कुचक्र का शिकार बनती रही है और किसी भी दल की सरकार आ जाये इस मुद्दे पर अपने वोट बैंक को बनाये रखने के लिए इसे ठन्डे बस्ते में डालती रही है और इसका शिकार बनती रही है यहाँ की जनता ,जिसे या तो अपने मुक़दमे को लड़ने के लिए अपने सारे कामकाज छोड़कर अपने घर से इतनी दूर कई दिनों के लिए जाना पड़ता है या फिर अपना मुकदमा लड़ने के विचार ही छोड़ देना पड़ता है .
  वकील इस मुद्दे को लेकर जनता की लड़ाई लड़ रहे हैं और जनता इस बात से अभी तक या तो अनभिज्ञ है या कहें कि वह अपनी अनभिज्ञता  को छोड़ना ही नहीं चाहती जबकि यह हड़ताल उन्हें हर तरह से नुकसान पहुंचा रही है और वे रोज़ न्यायालयों के चक्कर काटते है और वापस आ जाते हैं वकीलों पर ही नाराज़ होकर ,वे समझना ही नहीं चाहते कि हड़ताल की पूरी जिम्मेदारी हमारी सरकारों की है जो समय रहते इस मुद्दे को निबटाना ही नहीं चाहते और पूर्व के वर्चस्व को पश्चिम पर बनाये रखना चाहते हैं .साथ ही एक बात और भी सामने आई है कि सरकार जनता को बेवकूफ बनाये रखने में ही अपनी सत्ता की सुरक्षा समझती है और नहीं देखती कि न केवल जनता के समय की पैसे की बर्बादी हो रही है बल्कि इतनी दूरी के उच्च न्यायालय से जनता धोखे की शिकार भी हो रही है क्योंकि पास के न्यायालय में बैठे अधिवक्ता अपने मुवक्किल के सामने होते हैं और उन्हें मुक़दमे के संबंध में अपनी प्रतिबद्धता अपने मुवक्किल को साबित करनी पड़ती है किन्तु ये दूरी वकील को भी उस प्रतिबद्धता से मुक्ति दे देती है .दूरी के कारण मुवक्किल उस तत्परता से वकील से मिल नहीं पाता और वकील उसका बेवकूफ बनाते रहते हैं ये मात्र कथन नहीं है सच्चाई है जो हमने स्वयं देखी है किन्तु सरकार को ये नहीं दिखता और वह रोज़ नए बहाने बनाकर इस बेंच को टालने में लगी रहती है अभी कल ही समाचार पत्रों में शीतलवाड़ आयोग की रिपोर्ट का सहारा लिया गया .


संविधान का अनुच्छेद २१४ कहता है कि प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय होगा और १९५४ में गठित शीतलवाड़ लॉ कमीशन ने भी अपनी रिपोर्ट में साफ किया कि न्याय प्रशासनके उच्च मानदंडों को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि हाईकोर्ट एक ही स्थान पर कार्य करे .उच्च न्यायालय द्वारा सम्पादित किये जाने वाले कार्य की गुणवत्ता को बनाये रखने के लिए ऐसा आवश्यक है .लेकिन जो संवैधानिक स्थिति है वह स्पष्ट तौर पर शीतलवाड़ आयोग की सलाह को हमेशा दरकिनार करती हुई दिखाई देती है .
    इलाहाबाद हाईकोर्ट की ऐसा नहीं है कि यह पहली बार किसी बेंच के सम्बन्ध में मांग हो .इलाहाबाद हाईकोर्ट की पहले से ही एक खंडपीठ लखनऊ बेंच के रूप में कार्य कर रही है ,हालाँकि यह सत्य है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ शीतलवाड़ आयोग की रिपोर्ट से पहले की है .
Allahabad high court.jpg
लेकिन सभी जगह ऐसा नहीं है .शीतलवाड़ आयोग १९५४ में गठित हुआ था और इसकी रिपोर्ट के बाद भी हाईकोर्ट की बेंच मध्य प्रदेश में व् राजस्थान में बनायीं गयी .
 

The first Chief Justice was Kamala Kant Verma. A bench was formed at Jaipuron 31 January 1977 under sub-section (2) of Section 51 of the States Reorganisation Act, 1956 which was dissolved in 1958. Currently the sanctioned strength of the judges is 50 and actual strength is 30.
राजस्थान उच्च न्यायालय के पहले न्यायधीश कमला कांत वर्मा थे उसकी एक बेंच जयपुर में ३१ जनवरी १९७७ को स्थापित की गयी .

Principal seat & Benches[edit]


on 1 November 1956, constituted two temporary benches of the High Court of Madhya Pradesh, one at Indore and the other at Gwalior. later by a Notification, issued in the exercise of the powers conferred by the Subsection (2) of section 51 of the States Reorganization Act, 1956 came into existence as the permanent benches on 28 November 1968.
ऐसे ही मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय १ नवमबर १९५६ को स्थापित हुआ और इसकी दो खंडपीठ इंदौर और ग्वालियर में स्थापित की गयी .
जब संविधान में राज्य के लिए एक ही उच्च न्यायालय का प्रावधान है और अनुच्छेद २३१ के अनुसार दो या दो से अधिक राज्यों या संघ क्षेत्र के लिए एक ही उच्च न्यायालय की स्थापना की जा सकती है तब ये इन राज्यों में उच्च न्यायालय की खंडपीठ क्यों स्थापित की गयी है ?

 और इसी का सहारा लेकर इलाहाबाद के वकील पश्चिमी यूपी में खंडपीठ का विरोध करते हैं तब इन्हीं की बात को ऊपर रखते हुए पश्चिमी यूपी की जायज मांग को दरकिनार करने के लिए ऐसे पुराने महत्वहीन उदाहरणों को सामने लाने का मीडिया जगत का यह प्रयास और वहां के वकीलों का पश्चिमी यूपी के वकीलों के आंदोलन को लगातार दबाने का यह प्रयत्न सिर्फ एक कुचक्र ही कहा जायेगा जिसे केवल इधर की जनता के साथ अन्याय करने के लिए ही अमल में लाया जाता है और यह कुचक्र ज्यादा दिनों तक चलने वाला नहीं है क्योंकि अबकी बार यहाँ के वकील कमर कसकर मुकाबले में आ जुटे हैं और सरकार को भी अब यह देखना होगा कि वह चालबाजी से इन्हें रोककर चालबाज़ों  का तमगा पाती है या यहाँ की जनता को हाईकोर्ट बेंच दे न्यायवादी सही रूप में कहलाने का .
 और अब जिस तरह से सरकार इस मुद्दे को टाल रही है और वकील जिस तरह से आक्रोशित हो रहे हैं उसे देखकर तो यही लगता है कि ये हड़ताल अभी और बढ़ेगी और जैसे कि आज तक होता आया है वही होगा अर्थात जब तक क्रुद्ध व् आन्दोलनरत वकील हिंसा का सहारा लेते हुए मरने मारने को उतारू नहीं  होंगे जब तक ये नहीं कहेंगे ''बेंच करो या मरो '' तब तक सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगेगी .
शालिनी कौशिक 
[कौशल]

    


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