मानवाधिकार व् कानून :क्या अपराधियों के लिए ही बने हैं ?
मानवाधिकार व् कानून :क्या अपराधियों के लिए ही बने हैं ?
Updated on: Tue, 29 Jan 2013 02:28 PM (IST)
आज सारा विश्व मानवाधिकार की राह पर चल रहा है और समस्त विश्व का फौजदारी कानून सबूतों से अपराध साबित होने की राह पर ,भले ही जिन्हें मानव अधिकार दिए जा रहे हैं वे उन्हें पाने के अधिकारी हों या न हों ,भले ही वे सबूत कैसे भी जुटाएं जाएँ इस पर ध्यान देने की कोई ज़रुरत कहीं दिखाई ही नहीं दे रही .दोनों ही स्थितियों का फायदा जितना अपराध करने वाले उठा रहे हैं उतना कोई नहीं .कसाब को फांसी दी जाती है तो किसी को ये याद नहीं रहता कि इस दरिन्दे ने किस दुर्दांत घटनाक्रम को अंजाम दिया था ?कितने लोगों को मौत के घाट उतारा था ?सभी की जुबान पर ''फांसी की जल्दबाजी ''ही सवाल बन जाती है और मानवीय अधिकार इस कदर हिलोरे मारते हैं कि एक बरगी सरकार का यह कार्य गैर कानूनी लगने लगता है .
सबूत के सही होने पर हम सभी सवाल उठा सकते हैं और उन्हें स्वीकारने वाले कानून पर भी .अपराधी अपराध करता है और उसी समय अपने को कहीं और दिखा देता है और भारतीय कानून साक्ष्य अधिनयम की धारा ११ में अन्यत्र उपस्थिति का अभिवाक [plea of alibi ]में उसे साबित हो जाने पर सुसंगत मान लेता है और अपराधी को बा-इज्ज़त रिहा कर देता है .कहने का मतलब यह है कि किसी ने कोई अपराध किया और अपने को कहीं और दिखा दिया साधारण रूप में देखे तो यहाँ इन दोनों बातों का कोई मेल नहीं किन्तु सबूतों के रूप में ये एक साथ जुड़ जाते हैं क्योंकि जब कोई यह कहता है कि जब अपराध हुआ तब मैं अपराध किया जाने की जगह से इतनी डोर था कि मैं इस अपराध को कर ही नहीं सकता था तो इनका एक साथ मेल हो जाता है और साबित हो जाने पर कानून में उसे छूट मिल जाती है जबकि ये सबूत किस तरह जुटाया गया इस और ध्यान नहीं दिया जाता और सारी कानून व्यवस्था को इस तरह के बहुत से सबूत जुटा कर ध्वस्त कर दिया जाता है .शरीर पर सिक्के से घाव कर अपने को मेडिकल के जरिये घायल दिखाया जाता है .अधिकांश बड़े सफेदपोश अपराधियों द्वारा गिरफ़्तारी से बचने के लिए अस्पतालों की शरण ली जाती है और झूठे बीमारी के प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया जाते हैं क्या ऐसे ही सबूतों को हमारी कानून व्यवस्था अपने निर्णय का आधार बनाती रहेगी?
और अगर करें मानवाधिकारों की बात तो वे भी इन्ही के पक्ष में खड़े दिखते हैं दैनिक जागरण ने इतवार २६ जनवरी को जस्टिस जे.एस.वर्मा का साक्षात्कार प्रस्तुत किया जिसमे उनसे पूछा गया -
दुष्कर्मी को नपुंसक बनाने का कानून दुनिया में कई जगह लागू है और काफी हद तक सफल भी है तो फिर आपने प्रयोग के तौर पर इसे कानून में शामिल करना ज़रूरी क्यों नहीं समझा ?
जिसमे वे भी अपराधियों के मानवाधिकार के लिए काफी जागरूक हो कहते हैं-
''यह एक तरह की यातना है .इससे मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन होता है .कानून किसी के अंग-भंग की इज़ाज़त नहीं देता .''
ऐसे सबूत और ऐसे मानवाधिकार, जो केवल अपराधियों के हित में ही हों [यही कहना पड़ता है क्योंकि अपराधी तो अपराध करते वक़्त नहीं देखता पीड़ित का मानवाधिकार ,जबकि कानून सजा देते वक़्त इस पहलू पर गौर अवश्य करता है ,और सबूत वे भी अपराधी सृजित कर लेते हैं जबकि पीड़ित दुःख शोक में उन्हें नष्ट करने से जैसा कृत्य भी कर जाते हैं ]और इन पर अवलंब रखने वाली हमारी कानून व्यवस्था और विश्व व्यवस्था आज अविश्वास की और ही बढ़ रही हैं .
दिल्ली गैंग रेप में नाबालिग करार दिए गए अपराधी के बारे में उसके हैड मास्टर के बयाँ को प्रमुखता दी गयी -''कि उसके पिता ने उसकी जन्म तिथि ४ जून १९९५ बताई थी .''स्कूलों के ये दस्तावेज कितने असली हैं इसके बारे में हम सभी जानते हैं .प्रवेश के लिए बहुत से स्कूल शपथ पत्र द्वारा जन्म तिथि की जानकारी मांगते हैं और कितने ही बच्चों के मता पिता से ये शपथ पत्र बनाते वक़्त जब मैं उनकी जन्म तिथि पूछती हूँ तो वे कह देते हैं कि जो भी ठीक समझो आप लिख दो तब मैं कक्षा के अनुसार कितने ही बच्चों की जन्मतिथि १ जुलाई बना चुकी हूँ और वर्ष के तो कहने ही क्या अगर कश ६ में आ रहा है बच्चा तो ११ साल और अगर ९ में तो १४ पता नहीं कितने बच्चों की लिख चुकी हूँ बस एक सलाह उन्हें दे देती हूँ कि आगे से सभी जगह यही लिखी जाएगी .अब पढने के मामले में तो इस पर विश्वास करना ठीक है क्योंकि किसी की पढाई मात्र उम्र की अज्ञानता के कारण नहीं रोकी जनी चाहिए किन्तु यदि वही बच्चा कोई अपराध करता है तो क्या ये प्रमाण पत्र विश्वास के योग्य माना जाना उचित है ?
पूर्व थल सेनाध्यक्ष वी.के.सिंह जी का जन्मतिथि विवाद तो सभी जानते हैं .सैन्य सचिवालय दस्तावेजों में १० मई १९५० और उसकी एजुटेंट शाखा में १० मई १९५१ .मैट्रिक प्रमाण पत्र में दर्ज जन्म तिथि १० मई १९५१ थी जिसे रक्षा मंत्रालय ने ख़ारिज कर दिया और बाद में वी.के सिंह जी द्वारा भी अपनी याचिका वापस ले ली गयी .क्यों नहीं यहाँ उनकी प्रमाण पत्र की जन्म तिथि को सही माना गया ?
इसी तरह से जन्मतिथि का विवाद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डॉ.ए.एस.आनंद का भी रहा .जन्मतिथि के बारे में इस तरह के विवाद जब तब सामने आते ही रहे हैं और रहेंगे क्योंकि ये दर्ज करने गए परिजन कितनी सही जन्मतिथि दर्ज करते हैं सभी जानते हैं .''बच्चा कहीं फेल होकर पीछे न रह जाये ''इए सोच से ग्रसित परिजन बच्चे की उम्र एक दो साल तो यूँ ही बढ़ा देते हैं .
फिर कानून कानून में ही अंतर क्यों ?एक जगह कानून अपराधी के अपराध करने की परिपक्वता को आधार मानता है और एक जगह उसकी उम्र को देखता है .भारतीय दंड सहिंता के ]]साधारण अपवाद ''अध्याय में धारा ८३ में कानून कहता है कि सात वर्ष से ऊपर और १२ वर्ष से नीचे के बच्चे का कार्य अपराध नहीं है यदि वह अपने अपराध की प्रकृति व् परिणाम नहीं जानता इसका साफ मतलब ये है कि यदि वह इस उम्र के बीच का है और अपने अपराध की प्रकृति व् परिणाम जानता है तो वह अपराधी है जैसे कि एक ११ वर्ष का बच्चा चाकू लेके किसी के पीछे भागे और कहे कि मैं तुझे मार दूंगा और ये कहते हुए चाकू मार दे तो वह अपराधी है क्योंकि वह जानता है कि वह क्या कर रहा है और इसका क्या परिणाम होगा .
ऐसे में दिल्ली गैंग रेप के इस आरोपी को उसके स्कूल प्रमाण पत्र के आधार पर नाबालिग मानना कहाँ तक सही है ?सर्वप्रथम तो वह इस दया का अधिकारी ही नहीं है क्योंकि जो कृत्य उसने किया है उसमे कहीं भी नाबालिग की मासूमियत नहीं दिखती .दूसरे उसका प्रमाण पत्र सबूत के तौर पर ग्रहण करने योग्य नहीं है .और अंत में केवल यही कि ये बात कि हड्डी जाँच प्रक्रिया कठिन है उसे छूट का अधिकारी नहीं बनाती क्योंकि वह किसी मानवाधिकार का अधिकारी नहीं है .उसके मानवाधिकार को देखने से पहले हमारे कानून को ''दामिनी ''के मानवधिकार को देखना होगा जिसे इस दरिन्दे ने तार तार कर दिया और जिसकी व्यथित आत्मा उसके परिजनों के मुख से केवल और केवल न्याय की मांग कर रही है और कह रही है '''उस हैवान को जिंदा जला दो'' यदि कानून इस और अपने ठीक कदम नहीं बढाता तो यही कहना हम सब भारतीयों को पड़ेगा कि ''मानवाधिकार और कानून केवल अपराधियों के लिए ही बने हैं ''
शालिनी कौशिक
[कौशल]
Updated on: Tue, 29 Jan 2013 02:28 PM (IST)
आज सारा विश्व मानवाधिकार की राह पर चल रहा है और समस्त विश्व का फौजदारी कानून सबूतों से अपराध साबित होने की राह पर ,भले ही जिन्हें मानव अधिकार दिए जा रहे हैं वे उन्हें पाने के अधिकारी हों या न हों ,भले ही वे सबूत कैसे भी जुटाएं जाएँ इस पर ध्यान देने की कोई ज़रुरत कहीं दिखाई ही नहीं दे रही .दोनों ही स्थितियों का फायदा जितना अपराध करने वाले उठा रहे हैं उतना कोई नहीं .कसाब को फांसी दी जाती है तो किसी को ये याद नहीं रहता कि इस दरिन्दे ने किस दुर्दांत घटनाक्रम को अंजाम दिया था ?कितने लोगों को मौत के घाट उतारा था ?सभी की जुबान पर ''फांसी की जल्दबाजी ''ही सवाल बन जाती है और मानवीय अधिकार इस कदर हिलोरे मारते हैं कि एक बरगी सरकार का यह कार्य गैर कानूनी लगने लगता है .
सबूत के सही होने पर हम सभी सवाल उठा सकते हैं और उन्हें स्वीकारने वाले कानून पर भी .अपराधी अपराध करता है और उसी समय अपने को कहीं और दिखा देता है और भारतीय कानून साक्ष्य अधिनयम की धारा ११ में अन्यत्र उपस्थिति का अभिवाक [plea of alibi ]में उसे साबित हो जाने पर सुसंगत मान लेता है और अपराधी को बा-इज्ज़त रिहा कर देता है .कहने का मतलब यह है कि किसी ने कोई अपराध किया और अपने को कहीं और दिखा दिया साधारण रूप में देखे तो यहाँ इन दोनों बातों का कोई मेल नहीं किन्तु सबूतों के रूप में ये एक साथ जुड़ जाते हैं क्योंकि जब कोई यह कहता है कि जब अपराध हुआ तब मैं अपराध किया जाने की जगह से इतनी डोर था कि मैं इस अपराध को कर ही नहीं सकता था तो इनका एक साथ मेल हो जाता है और साबित हो जाने पर कानून में उसे छूट मिल जाती है जबकि ये सबूत किस तरह जुटाया गया इस और ध्यान नहीं दिया जाता और सारी कानून व्यवस्था को इस तरह के बहुत से सबूत जुटा कर ध्वस्त कर दिया जाता है .शरीर पर सिक्के से घाव कर अपने को मेडिकल के जरिये घायल दिखाया जाता है .अधिकांश बड़े सफेदपोश अपराधियों द्वारा गिरफ़्तारी से बचने के लिए अस्पतालों की शरण ली जाती है और झूठे बीमारी के प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया जाते हैं क्या ऐसे ही सबूतों को हमारी कानून व्यवस्था अपने निर्णय का आधार बनाती रहेगी?
और अगर करें मानवाधिकारों की बात तो वे भी इन्ही के पक्ष में खड़े दिखते हैं दैनिक जागरण ने इतवार २६ जनवरी को जस्टिस जे.एस.वर्मा का साक्षात्कार प्रस्तुत किया जिसमे उनसे पूछा गया -
दुष्कर्मी को नपुंसक बनाने का कानून दुनिया में कई जगह लागू है और काफी हद तक सफल भी है तो फिर आपने प्रयोग के तौर पर इसे कानून में शामिल करना ज़रूरी क्यों नहीं समझा ?
जिसमे वे भी अपराधियों के मानवाधिकार के लिए काफी जागरूक हो कहते हैं-
''यह एक तरह की यातना है .इससे मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन होता है .कानून किसी के अंग-भंग की इज़ाज़त नहीं देता .''
ऐसे सबूत और ऐसे मानवाधिकार, जो केवल अपराधियों के हित में ही हों [यही कहना पड़ता है क्योंकि अपराधी तो अपराध करते वक़्त नहीं देखता पीड़ित का मानवाधिकार ,जबकि कानून सजा देते वक़्त इस पहलू पर गौर अवश्य करता है ,और सबूत वे भी अपराधी सृजित कर लेते हैं जबकि पीड़ित दुःख शोक में उन्हें नष्ट करने से जैसा कृत्य भी कर जाते हैं ]और इन पर अवलंब रखने वाली हमारी कानून व्यवस्था और विश्व व्यवस्था आज अविश्वास की और ही बढ़ रही हैं .
दिल्ली गैंग रेप में नाबालिग करार दिए गए अपराधी के बारे में उसके हैड मास्टर के बयाँ को प्रमुखता दी गयी -''कि उसके पिता ने उसकी जन्म तिथि ४ जून १९९५ बताई थी .''स्कूलों के ये दस्तावेज कितने असली हैं इसके बारे में हम सभी जानते हैं .प्रवेश के लिए बहुत से स्कूल शपथ पत्र द्वारा जन्म तिथि की जानकारी मांगते हैं और कितने ही बच्चों के मता पिता से ये शपथ पत्र बनाते वक़्त जब मैं उनकी जन्म तिथि पूछती हूँ तो वे कह देते हैं कि जो भी ठीक समझो आप लिख दो तब मैं कक्षा के अनुसार कितने ही बच्चों की जन्मतिथि १ जुलाई बना चुकी हूँ और वर्ष के तो कहने ही क्या अगर कश ६ में आ रहा है बच्चा तो ११ साल और अगर ९ में तो १४ पता नहीं कितने बच्चों की लिख चुकी हूँ बस एक सलाह उन्हें दे देती हूँ कि आगे से सभी जगह यही लिखी जाएगी .अब पढने के मामले में तो इस पर विश्वास करना ठीक है क्योंकि किसी की पढाई मात्र उम्र की अज्ञानता के कारण नहीं रोकी जनी चाहिए किन्तु यदि वही बच्चा कोई अपराध करता है तो क्या ये प्रमाण पत्र विश्वास के योग्य माना जाना उचित है ?
पूर्व थल सेनाध्यक्ष वी.के.सिंह जी का जन्मतिथि विवाद तो सभी जानते हैं .सैन्य सचिवालय दस्तावेजों में १० मई १९५० और उसकी एजुटेंट शाखा में १० मई १९५१ .मैट्रिक प्रमाण पत्र में दर्ज जन्म तिथि १० मई १९५१ थी जिसे रक्षा मंत्रालय ने ख़ारिज कर दिया और बाद में वी.के सिंह जी द्वारा भी अपनी याचिका वापस ले ली गयी .क्यों नहीं यहाँ उनकी प्रमाण पत्र की जन्म तिथि को सही माना गया ?
इसी तरह से जन्मतिथि का विवाद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डॉ.ए.एस.आनंद का भी रहा .जन्मतिथि के बारे में इस तरह के विवाद जब तब सामने आते ही रहे हैं और रहेंगे क्योंकि ये दर्ज करने गए परिजन कितनी सही जन्मतिथि दर्ज करते हैं सभी जानते हैं .''बच्चा कहीं फेल होकर पीछे न रह जाये ''इए सोच से ग्रसित परिजन बच्चे की उम्र एक दो साल तो यूँ ही बढ़ा देते हैं .
फिर कानून कानून में ही अंतर क्यों ?एक जगह कानून अपराधी के अपराध करने की परिपक्वता को आधार मानता है और एक जगह उसकी उम्र को देखता है .भारतीय दंड सहिंता के ]]साधारण अपवाद ''अध्याय में धारा ८३ में कानून कहता है कि सात वर्ष से ऊपर और १२ वर्ष से नीचे के बच्चे का कार्य अपराध नहीं है यदि वह अपने अपराध की प्रकृति व् परिणाम नहीं जानता इसका साफ मतलब ये है कि यदि वह इस उम्र के बीच का है और अपने अपराध की प्रकृति व् परिणाम जानता है तो वह अपराधी है जैसे कि एक ११ वर्ष का बच्चा चाकू लेके किसी के पीछे भागे और कहे कि मैं तुझे मार दूंगा और ये कहते हुए चाकू मार दे तो वह अपराधी है क्योंकि वह जानता है कि वह क्या कर रहा है और इसका क्या परिणाम होगा .
ऐसे में दिल्ली गैंग रेप के इस आरोपी को उसके स्कूल प्रमाण पत्र के आधार पर नाबालिग मानना कहाँ तक सही है ?सर्वप्रथम तो वह इस दया का अधिकारी ही नहीं है क्योंकि जो कृत्य उसने किया है उसमे कहीं भी नाबालिग की मासूमियत नहीं दिखती .दूसरे उसका प्रमाण पत्र सबूत के तौर पर ग्रहण करने योग्य नहीं है .और अंत में केवल यही कि ये बात कि हड्डी जाँच प्रक्रिया कठिन है उसे छूट का अधिकारी नहीं बनाती क्योंकि वह किसी मानवाधिकार का अधिकारी नहीं है .उसके मानवाधिकार को देखने से पहले हमारे कानून को ''दामिनी ''के मानवधिकार को देखना होगा जिसे इस दरिन्दे ने तार तार कर दिया और जिसकी व्यथित आत्मा उसके परिजनों के मुख से केवल और केवल न्याय की मांग कर रही है और कह रही है '''उस हैवान को जिंदा जला दो'' यदि कानून इस और अपने ठीक कदम नहीं बढाता तो यही कहना हम सब भारतीयों को पड़ेगा कि ''मानवाधिकार और कानून केवल अपराधियों के लिए ही बने हैं ''
शालिनी कौशिक
[कौशल]
टिप्पणियाँ
वह शातिर बदमाश जिसे स्कूल प्रमाण पत्र के आधार पर १७ साल सात महीने बतलाया जा रहा है ,पांच माह बाद क्या भारत को चार चाँद लगा देता है .तर्क आखिर तर्क है उसकी सीमाएं हैं .जिसे फिट आजाए उसे फांसी का फंदा है बाकी सब को आज़ादी है .
बढ़िया पोस्ट लिखी है आपने .
एक थे प्रभात जोशी .पुण्य आत्मा थे .जैसे अन्दर वैसे बाहर .कार की उनकी पेंट उड़ा रहता था .हमें वीरेंद्र शर्मा बनाने में उनका बड़ा हाथ रहा .बिंदास बोलते थे -सुबह उठकर आर एस एस को
गाली देना नित्य कर्म की तरह उनके लिए ज़रूरी हो गया है कहिये तो तारीख बतलाऊँ 'कागद कारे 'स्तंभ की ,(जनसत्ता ) जिसमें उन्होंने ये सब लिखा है .यह व्यक्ति हिंदी पत्रकारिता
का
पितामह था .
वीरसावरकर को अंग्रेजों का पिठ्ठू मान ता था ,शालिनी जी अंध भक्ति तो हमने अपने गुरु की भी नहीं की ,प्रभाष जोशी जी मेरे गुरु थे , लेकिन बिंदास बोलते थे .हम उन्हीं के अनुयाई हैं
.आपकी आप जाने .
गजब है सच को सच कहते नहीं हैं ,
हमारे हौसले पोले हुए हैं .,
हमारा कद सिमट के घट गया है हमारे पैरहन झोले हुए हैं .
संवाद बनाए रहिए . आभार .
ram ram bhai
मुखपृष्ठ
मंगलवार, 29 जनवरी 2013
इस देश की जनता दिग्विजय के उत्तर की प्रतीक्षा में है
http://veerubhai1947.blogspot.in/
अभी तो और भी रातें सफर में आयेंगी ,
चरागे शब मेरे महबूब संभाल के रख .
recent post: कैसा,यह गणतंत्र हमारा,
मानवाधिकारवादियों ने अपने क्रियाकलापों से अपराधियों के मनोबल को बढ़ाने का ही काम अधिक किया है। अब तो लोगों ने इसे सफ़ेद हाथी कहना भी शुरू कर दिया है। जब हम दरिन्दगी और क्रूरता की सारी सीमायें पार कर चुके किसी अपराधी के प्रति मृदु व्यवहार की वकालत करते हैं तो एक ओर हम पीड़ित की पीड़ाओं की उपेक्षा करते हैं और दूसरी ओर समाज में कानून के भय को समाप्त करने का अपराध भी करते हैं। समाज से संत के आचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती, सुव्यवस्था के लिये कठोरता आवश्यक है।
,मुंबई पर हमला करने वाले सैंकड़ों हजारों लोगों के हत्यारे और भारत को अपना दुश्मन घोषित करने वाले इन आतंकवादियों के लिए "जी" और "साहब "जैसे आदरसूचक शब्दों का प्रयोग
करना किस न्याय के अंतर गत तर्क संगत है ?अपराध करने वाले व्यक्ति का सहकारी भी अपराधी माना जाता है .कोई और स्वाभिमानी देश होता तो दिग्विजय जैसी प्रवृत्ति के व्यक्ति को
शेष जीवन एडियाँ रगड़ने के लिए जेल में डालदेता .दुर्भाग्य यह है कि आप जैसी शिक्षित महिला भी परोक्ष रूप से दिग्विजय का समर्थन कर रही हैं .जब आप मेरे द्वारा कहे गए तर्कों को
पचाने से इनकार करती हैं तो आतंकवाद की समर्थक भाषा का प्रयोग करने वाले दिग्विजय को कौन सम्मान देगा .ये तो भारत का लोक तंत्र है जिसमें दिग्विजय जैसे राष्ट्र हित के विरोधी
और आप जैसी उनकी समर्थक दनदनाते फिर रहें हैं .आपका कोई दोष नहीं है .बस इतना ही कि राष्ट्रहित को देखके टिपण्णी दिया करें .
यह कैसी विडम्बना है..
वीरुभाई जी इसे कहते हैं अंधभक्ति अगर आपके मोहन भगवत जी इन्हें ''जी''या साहब कहते तो आप कोई न कोई तर्क उनके समर्थन में दे ही देते कि उन्होंने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि उन्हें झाड़ पर चढ़ा कर गिराने का इरादा रखते थे वैसे मोदी जी की खिलाफत बहार तो कम उनके अपने दल में ही कुछ ज्यादा है इस पर भी तो कुछ कहिये रोचक प्रस्तुति मानवाधिकार व् कानून :क्या अपराधियों के लिए ही बने हैं ? आप भी जाने इच्छा मृत्यु व् आत्महत्या :नियति व् मजबूरी
29 जनवरी 2013 10:22 pm
Virendra Kumar Sharma ने कहा…
मैंने दिग्विजय के वक्तव्यों पर सवाल उठाए थे .उन्होंने ओसामा बिन लादेन और हाफ़िज़ सईद के लिए "जी "और "साहब "का प्रयोग किया है .इस देश के स्वाभिमान को चुनौती देने वाले
,मुंबई पर हमला करने वाले सैंकड़ों हजारों लोगों के हत्यारे और भारत को अपना दुश्मन घोषित करने वाले इन आतंकवादियों के लिए "जी" और "साहब "जैसे आदरसूचक शब्दों का प्रयोग
करना किस न्याय के अंतर गत तर्क संगत है ?अपराध करने वाले व्यक्ति का सहकारी भी अपराधी माना जाता है .कोई और स्वाभिमानी देश होता तो दिग्विजय जैसी प्रवृत्ति के व्यक्ति को
शेष जीवन एडियाँ रगड़ने के लिए जेल में डालदेता .दुर्भाग्य यह है कि आप जैसी शिक्षित महिला भी परोक्ष रूप से दिग्विजय का समर्थन कर रही हैं .जब आप मेरे द्वारा कहे गए तर्कों को
पचाने से इनकार करती हैं तो आतंकवाद की समर्थक भाषा का प्रयोग करने वाले दिग्विजय को कौन सम्मान देगा .ये तो भारत का लोक तंत्र है जिसमें दिग्विजय जैसे राष्ट्र हित के विरोधी
और आप जैसी उनकी समर्थक दनदनाते फिर रहें हैं .आपका कोई दोष नहीं है .बस इतना ही कि राष्ट्रहित को देखके टिपण्णी दिया करें .
30 जनवरी 2013 1:02 pm
लेकिन आज तो डॉक्टरी परीक्षण से सही उम्र का पता लगाया जा सकता ....