संजय जी -कुमुद और सरस को अब तो मिलाइए.
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''सरस्वती चन्द्र '' संजय लीला भंसाली का यह धारावाहिक इस वक्त स्टार प्लस व् दूरदर्शन पर प्रसारित हो रहा है और यह प्रसिद्द गुजराती उपन्यास सरस्वतीचंद्र पर आधारित है जो कि १९ वीं सदी में लिखा गया था .
Saraswatichandra (Abridged) | |
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![]() Front Cover of Saraswatichandra (Abridged) | |
Author(s) | Govardhanram M. Tripathi |
Original title | Saraswatichandra |
Translator | Vinod Meghani |
Country | India |
Language | Gujarati |
ISBN | 81-260-2346-5 |
धारावाहिक की आरंभिक पंक्ति ने इस कदर दिल दुखाया है कि विकिपीडिया पर इसकी कहानी की खोज की जिसमे पता चला कि बहुत पहले 1968 में इस पर फिल्म भी बन चुकी है
![]() Saraswatichandra (1968) | |
Directed by | Govind Saraiya |
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Starring | Nutan Manish |
Music by | Kalyanji-Anandji |
Cinematography | Nariman A. Irani |
Release date(s) | 1968 |
Country | India |
Language | Hindi |
ये तो हुई भावुक अपील दो प्यार भरे दिलों को लेकर किन्तु यदि हम अपने आज के सामाजिक परिवेश में बढती सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध बढती विद्रोह की प्रवर्ति को देखें तो क्या सही है इस तरह की कहानी दिखाना जहाँ बड़ी बड़ी साजिशें मात्र इसलिए रची जाती हैं कि मेरे बेटे को लक्ष्मीनंदन की संपत्ति मिल जाये ,मेरी पत्नी ने मुझे जेल भिजवाया उसे अपनी बेटी का जीवन उजाड़कर सजा दी जाये ,मेरी शादी भले ही दूसरी हो एक इन्स्पेक्टर के शादी को रोकने की उसने कैसे कोशिश की इसलिए उसकी शादी भी रोक दी जाये और ये सब तो सफल हो जाएँ और असफल हो जाएँ वही सत्य वही अच्छाई जिसे हम हर वर्ष दशहरा के पर्व पर रावन को जले देख आत्मसात करते हैं ,असफल हो जाये वही प्यार जो एक माँ अपनी बेटी से करती है ,वह स्नेह जो एक बाप अपने बेटे से -बेटी से करता है .
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लक्ष्मी नंदन ने अपनी पत्नी का दर्जा दिया एक नाचने वाली को ये इस धारावाहिक के द्वारा यदि समाज में फैलती बुराई के रूप में देखें तो धारावाहिक का यही रूप सही है क्योंकि यह दिखता है कि ऐसी औरत कभी अच्छी नहीं हो सकती और आगे भी ऐसा धारावाहिक उन औरतों के जो किसी मजबूरी वश ऐसे पेशे में फंस गयी हैं पुनर्वास को रोकता है किन्तु यदि संजय लीला भंसाली जी इसमें गुमान का ही ह्रदय परिवर्तन करा उसी से इन दोनों के प्यार को मुकम्मल मोहब्बत की सम्पूर्ण दास्तान के रूप में स्थापित कराते हैं तो वे एक साथ हमारे समाज में बहुत से आदर्शों को जन्म दे सकते हैं .हमारे ये धारावाहिक साहित्य के ही समान समाज का आइना होते हैं किन्तु क्या हमेशा सत्य ही दिखायेंगे फिर समाज में सुधार कैसे कर पाएंगे ?
समाज में आदर्श की स्थापना भी इस माध्यम से आसानी से की जा सकती है आज अधिकांश धारावाहिक साजिशों से भरे हैं किन्तु हर धारावाहिक इतना गहरा असर नहीं रखता जितना इस धारावाहिक का है ऐसे में संजय जी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है और ये उन्हें निभानी भी चाहिए यदि वे इस धारावाहिक में गुमान के माध्यम से ही कुमुद को सरस से मिलाते हैं तो एक तो सौतेली माँ को लेकर कुछ मिथक जो लगभग सच्चाई का रूप ले चुके हैं टूट सकते हैं ,दूसरे आज की बहुत सी मजबूरीवश ऐसे धंधे में फंसी नारियों के पुनर्वास की संभावनाएं बढती हैं और तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य वह यह कि परिवार द्वारा तय की गयी शादियाँ जो हमारे समाज में होती आई हैं दो अंजान व्यक्तियों को प्रेम के बंधन में बांध सकती हैं ,इस धारणा को बलवती बनाती हैं.
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इस कारण और सरस कुमुद के चरित्रों के जन भावनाओं से जुड़े होने के कारण संजय लीला भंसाली जी से अनुरोध है कि कुमुद और सरस के प्यार को अंधकार में न खोने दें बल्कि इसे हमारी आने वाली पीढ़ियों में इस सन्देश को आत्मसात करने का माध्यम बनाये कि परिवार से जुड़कर और उसकी भावनाओं का सम्मान कर भी अपने जीवन में अपना मनचाहा पाया जा सकता है .इसलिए आज तक भले ही इस उपन्यास का पूर्णरूप से अनुसरण किया गया हो अब परिवर्तन चाहिए संजय जी -कुमुद और सरस को अब तो मिलाइए.
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
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इस कारण और सरस कुमुद के चरित्रों के जन भावनाओं से जुड़े होने के कारण संजय लीला भंसाली जी से अनुरोध है कि कुमुद और सरस के प्यार को अंधकार में न खोने दें बल्कि इसे हमारी आने वाली पीढ़ियों में इस सन्देश को आत्मसात करने का माध्यम बनाये कि परिवार से जुड़कर और उसकी भावनाओं का सम्मान कर भी अपने जीवन में अपना मनचाहा पाया जा सकता है .इसलिए आज तक भले ही इस उपन्यास का पूर्णरूप से अनुसरण किया गया हो अब परिवर्तन चाहिए संजय जी -कुमुद और सरस को अब तो मिलाइए.
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
टिप्पणियाँ
सादर आभार !
पी.सी.बरुआ ,के. एल.सैगल और दिलीप कुमार के "देवदास" के बाद संजयभंसाली के देवदास को भी देखा था ! गोविन्द सरइया जी से " फिल्म्स- डिवीजन" में उनके सरस्वतीचंद्र की प्राइवेट स्क्रीनिंग पर चन्द्रा साहेब के साथ मिला था ! ये सभी प्रस्तुतीकरण अविस्मरणीय हैं ! गोविन्द जी ने तो दो घंटे रुला कर मुक्त कर दिया था ! परन्तु "संजयजी" लगता है कि रुला रुला कर हम जैसे बूढों को "परम धाम" पहुंचा कर ही मानेंगे !
पिछले एक महीने से यू.एस.ए में जहां हम रह रहे हौं वहाँ "स्टारप्लस" की पहुँच नहीं है सो फिलहाल जान बची है !
आशा है बुद्धिजीवियों का प्रस्ताव संजय जी स्वीकार करेंगे !