खुशबू (इन्द्री)करनाल-article( क्या अब भारत पूर्ण साक्षर देश बन पायेगा )
खुशबू (इन्द्री)करनाल
साल 2010 में भारत सरकार ने देश में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून लागू किया जिसके तहत 6 से 14 साल तक के हर बच्चे के लिए शिक्षा प्राप्त करना अनिवार्य होगा | अपनी तरफ से तो सरकार ने इस कानून को एक बहुत बड़ी उपलब्धि बताया| लेकिन सरकार कि यह उपलब्धि देश की जनता को पूरी तरह से शिक्षित कर पाने में सफल होती नहीं दिख रही | आज भी देश के सभी बच्चों की स्कूलों तक पहुंच नहीं है| क्योंकि लोगों को इस कानून बारे जानकारी नहीं है| दूसरे देश के कुछ राज्यों में यह कानून लागू नहीं किया गया है| हांलाकि इस कानून के अंतर्गत बच्चों को सुलभ सुविधाओं सहित शिक्षा तो मिल जायेगा लेकिन क्या वह आधार मिल पायेगा जो उन्हें आज के तकनीकी और प्रतियोगिता भरे समाज में सफल कर सके| देश की आधी से ज्यादा जनता सरकारी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करती है | लेकिन इन स्कूलों में उन्हें वैसी शिक्षा नहीं मिल पाती जैसी मिलनी चाहिए | कानून के अंतर्गत यह प्रावधान भी किया गया है कि निजी स्कूल अपने कोटे का २५ प्रतिशत कमजोर वर्ग के लिए रखेंगे | लेकिन इस नियम का पालन कितना होगा पता नहीं | पालन हो भी गया तो बाकी के 75 प्रतिशत बच्चे क्या करेंगे | उनके लिए तो सरकारी स्कूल ही एकमात्र विकल्प बचेगा| लेकिन सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था की हालत तो बदतर है | कहीं पर अध्यापक नहीं तो कहीं पर बैठने की,पुस्तकालय,शौचालय,पीने के पानी की व्यवस्था नहीं | अध्यापक हैं तो पढ़ाने का अनुभव नहीं | जिम्मेदारी का एहसास नहीं | स्कूल आते हैं , बैठते हैं,खाते पीते हैं,घूमते फिरते हैं और चले जाते हैं| कक्षा में जाकर ओपचारिकता निभा देतें हैं वो भी कभी कभी | देश के ज्यादातर स्कूलों में ये हालात हैं| क्योंकि अध्यापकों को पता है कि कोई उन पर लगाम कसने वाला नहीं | क्योंकि कही पर प्रिंसिपल नहीं | अगर है तो कुछ कहता नहीं | अधिकारी आकर देखते नहीं | हाँ उन्हें वेतन जरुर मिल जाता है| कम करे या न करे | कुछ स्कूलों में तो बच्चों से शारीरिक श्रम कराया जाता है | अगर स्कूल में कोई निर्माण कार्य चल रहा है तो बच्चों से ईंट पत्थर उठ्वाएं जाते हैं | कमरों कि साफ सफाई करायी जाती है | मानो स्कूल में सफाई कर्मी न हों | क्या देश के शिक्षा सुधारक ये बता सकतें हैं कि उनके सरकारी स्कूलों में बच्चें शिक्षा ग्रहण करने जाते हैं या मजदूरी करने | कुछ समय पहले सरकार ने बच्चों को कंप्यूटर शिक्षा देने के लिए सर्व साक्षरता अभियान चलाया था जो असफल रहा |क्योंकि स्कूलों में कंप्यूटर लैब ही नहीं हैं|कंप्यूटर लैब हैं तो सिस्टम नहीं| सिस्टम हैं तो सिखाने वाले नहीं| सरकार ने सरकारी स्कूली बच्चों को दोपहर का भोजन उपलब्ध कराने के उदेश्य से मिड डे मील योजना शुरू की| वह भी धूल चाटती नज़र आई |कहीं पर राशन नहीं तो कहीं पर पकाने वाले नहीं | राशन है तो गला सड़ा |पकाने वाले हैं तो सफाई से नहीं पकाते | अधपका चूल्हे की दुर्गन्ध वाला|अगर इस तरह का वातावरण और शिक्षा सरकार द्वारा बच्चों को दी जनि है तो यह कानून बेकार ही साबित होगा |अगर सरकार भ्रष्ट प्रशासन और इस तरह की शिक्षा व्यवस्था के साथ एक मजबूत,खुशहाल और पूर्ण साक्षर भारत का सपना देख रही है तो यह सपना अधूरा ही रहेगा | अगर सरकार वाकई भारत को पूर्ण साक्षर देश बनाना चाहती है तो दिल्ली में बैठ कर नए नए नियम और कानून बना देने से कुछ नहीं होगा| बच्चों के बीच में जाकर उनकी समस्याएं पूछें जाने कि उन्हें क्या चाहिए तब जाकर सोचिये कि किस तरह कि शिक्षा व्यवस्थाएं और नियम बनायें जाएँ| सबसे ज्यादा जरूरी तो यह देखना है कि जो कानून बनाये गए हैं वे पूरी तरह लागू भी हुए हैं या नहीं| केवल कानून बना देने से ही जम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती | अगर वाकई में सरकार शिक्षा को भारतीयों की सफलता की कुंजी बनाना चाहती है तो शिक्षा व्यवस्था का आधारभूत ढांचा मजबूत करना ही पड़ेगा |
ख़ुशी ने यह आलेख मेरे ब्लॉग के लिए मुझे मेल से भेजा है आप सभी इसे पढ़कर अवश्य राय दें ख़ुशी का इ-मेल आई डी ये है-media1602 @gmail .com
टिप्पणियाँ
घूम फिर कर बात व्यवस्था पर आती है...जब तक व्यवस्था में मैकाले : तत्व विराजमान है तब तक ये प्रयास सफल नहीं हो सकते....
bhola -krishna