झूठ के सिवा आता ही क्या है तुम्हें


जम्मू-कश्मीर / महाराजा हरि सिंह के भारत में विलय के प्रस्ताव को ठुकराकर नेहरू ने विश्वासघात किया: संघ नेता
              ये हैं आज के स्वामी विवेकानंद जी के अनुयायी, जो आज की अपनी भाषण बाजियों द्वारा उनके आदर्शों का इतना उच्च स्थान सृजित कर रहे हैं कि आँखे शर्म से झुकी जाती हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता अरुण कुमार ने नरेंद्र मोदी की परंपरा को आगे बढ़ाया है और उन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए इतिहास को अपने रंग में रंगने का प्रयास किया है. जबकि वास्तविकता व सच्चाई से न कभी उनके आदर्श का कोई नाता रहा है और न ही उनके विचार सच्चाई की धरती पर पैर रखने लायक हैं.
   इतिहास
भारत में कश्मीर का विलय पूरा क्यों नहीं हो सका था?
भारत ने कश्मीर के साथ जिस ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ पर दस्तखत किए थे वह अक्षरश: वैसा ही था जैसा मैसूर, टिहरी गढ़वाल या बाकी रियासतों के लिए बनाया गया था.
     केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाला अनुच्छेद 370, जिसे आम भाषा में धारा 370 भी कहा जाता है, खत्म कर दिया है. यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर को एक विशेष दर्जा देता था. इसके साथ ही केंद्र ने इस राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने का फैसला किया है. सरकार ने अपने इस कदम को ऐतिहासिक बताया है तो विपक्ष ने इसे संविधान के साथ मखौल करार दिया है. जो भी हो, इसमें कोई दो राय नहीं कि जम्मू-कश्मीर के इतिहास में यह एक अहम मोड़ है.

इतिहास

‘मैं सोने जा रहा हूं. कल सुबह अगर तुम्हें श्रीनगर में भारतीय सैनिक विमानों की आवाज़ सुनाई न दे, तो मुझे नींद में ही गोली मार देना.’ यह बात आज से ठीक 70 साल पहले, 26 अक्टूबर 1947 की रात जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरी सिंह ने अपने अंगरक्षक कप्तान दीवान सिंह से कही थी. इससे कुछ देर पहले ही उन्होंने कश्मीर के भारत में विलय का फैसला लिया था और ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर कर दिए थे. कश्मीर अब भारत का हिस्सा बन चुका था.
       लेकिन फिर भी महाराजा हरी सिंह क्यों चिंतित थे? क्या परिस्थितियां थी जिनके चलते महाराजा हरी सिंह अपनी आजाद रहने की जिद्द छोड़कर ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर करने को तैयार हो गए थे? 27 अक्टूबर 1947 को जब भारत ने कश्मीर के साथ हुए ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन’ को स्वीकार कर लिया था तो क्यों कश्मीर आज भी एक विवाद बना हुआ है? क्या भारत ने कश्मीर के साथ कोई विशेष ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन’ साइन किया था जो कि अन्य रियासतों के साथ हुए समझौतों से अलग था? इन तमाम सवालों के जवाब समझने के लिए जरूरी है कि पहले कश्मीर के इतिहास और भूगोल को संक्षेप में समझ लिया जाए.

जम्मू-कश्मीर मुख्यतः पांच भागों में विभाजित था - जम्मू, कश्मीर, लद्दाख, गिलगिट और बाल्टिस्तान. इन सभी इलाकों को एक सूत्र में बांध कर एक राज्य बनाने का श्रेय डोगरा राजपूतों को जाता है. जम्मू के डोगरा शासकों ने 1830 के दशक में लद्दाख पर फतह हासिल की, 40 के दशक में उन्होंने अंग्रेजों से कश्मीर घाटी हासिल कर ली और सदी के अंत तक वे गिलगिट तक कब्ज़ा कर चुके थे. इस तरह कश्मीर एक ऐसा विशाल राज्य बन गया था जिसकी सीमाएं अफगानिस्तान, चीन और तिब्बत को छूती थीं.

जिस वक्त भारत आज़ाद हुआ उस वक्त हरी सिंह कश्मीर के राजा हुआ करते थे. उन्होंने 1925 में राजगद्दी संभाली थी. यही वह दौर भी था जब कश्मीर में राजशाही के खिलाफ आवाजें उठने लगी थीं. और इन आवाजों के सबसे बड़े प्रतिनिधि थे - शेख अब्दुल्ला. 1905 में जन्मे शेख अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएट थे. लेकिन अपनी तमाम शैक्षणिक योग्यताओं के बावजूद उन्हें कश्मीर में सरकारी नौकरी नहीं मिली सकी थी क्योंकि यहां के प्रशासन में हिंदुओं का बोलबाला था. मुस्लिमों के साथ हो रहे इस भेदभाव के खिलाफ शेख अब्दुल्ला ने आवाज़ उठाना शुरू किया और धीरे-धीरे वे राजा हरी सिंह के सबसे बड़े दुश्मन बन गए.
            आकर्षक व्यक्तित्व और प्रभावशाली वक्ता होने के चलते जल्द ही शेख अब्दुल्ला घाटी में बेहद लोकप्रिय हो गए. साल 1932 में उन्होंने ‘ऑल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कॉफ्रेंस’ का गठन किया. कुछ सालों बाद इसी संगठन का नाम बदलकर ‘नेशनल कॉफ्रेंस’ कर दिया गया. इसमें सभी धर्मों के लोग शामिल थे और इसकी मुख्य मांग थी - राज्य में जनता के प्रतिनिधित्व वाली सरकार का गठन हो जिसका चुनाव मताधिकार के जरिये किया जाए. 1940 आते-आते शेख घाटी के सबसे लोकप्रिय नेता बन चुके थे. वे जवाहरलाल नेहरु के भी काफी करीब आ गये थे.

1940 का दशक जब ढलान पर था और यह साफ हो गया था कि अंग्रेज अब भारत छोड़ने ही वाले हैं, महाराजा हरी सिंह के प्रधानमंत्री रामचंद्र काक ने उन्हें कश्मीर की आज़ादी के बारे में विचार करने को कहा. कांग्रेस से नफरत के चलते महाराजा हरी सिंह भारत में विलय नहीं चाहते थे और पाकिस्तान में विलय का मतलब था उनके ‘हिंदू राजवंश’ पर पूर्णविराम लग जाना. लिहाजा वे कश्मीर को एक आजाद मुल्क बनाए रखना चाहते थे. 15 अगस्त से पहले-पहले लार्ड माउंटबेटन ही नहीं बल्कि खुद महात्मा गांधी भी कश्मीर गए और महाराजा हरी सिंह को भारत में विलय के लिए राजी होने को कहा, लेकिन ये सभी प्रयास निरर्थक रहे.

15 अगस्त को देश आज़ाद हो गया. कश्मीर अब भी न भारत के साथ था और न पाकिस्तान के साथ. उसने दोनों देशों से एक ‘स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट’ (यथास्थिति समझौता) करने की पेशकश की. पाकिस्तान ने यह समझौता कर लिया लेकिन भारत ने फिलहाल इंतज़ार करना ही मुनासिब समझा. इस दौर की एक बेहद दिलचस्प जानकारी रामचंद्र गुहा की चर्चित किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में मिलती है. इस जानकारी के अनुसार इस वक्त तक पंडित नेहरु तो कश्मीर का भारत में विलय चाहते थे लेकिन सरदार पटेल यह संकेत दे रहे थे कि उन्हें कश्मीर के पाकिस्तान में मिल जाने से अपत्ति नहीं होगी. हालांकि 13 सितंबर के बाद उनका यह रुख बदल गया जब पाकिस्तान ने जूनागढ़ के खुद में विलय को स्वीकार कर लिया. ‘अगर जिन्ना, एक हिंदू बाहुल्य मुस्लिम शासित राज्य को पाकिस्तान में मिला सकते थे, तो सरदार को एक मुस्लिम बाहुल्य हिंदू शासित राज्य को भारत में मिलाने की दिलचस्पी क्यों नहीं दिखानी चाहिए थी?’
           27 सितंबर को नेहरु ने सरदार पटेल को एक अहम पत्र लिखा. उन्हें खबर मिली थी कि पकिस्तान कश्मीर में घुसपैठियों को भेजकर हमला करवा सकता है और महाराजा का प्रशासन इस हमले को झेल पाने में सक्षम नहीं था. लिहाजा उन्होंने लिखा कि महाराजा को तुरंत ही शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा कर देना चाहिए और नेशनल कॉफ्रेंस से दोस्ती कर लेनी चाहिए ताकि पाकिस्तान के खिलाफ जनसमर्थन बनाया जा सके और कश्मीर के भारत में विलय का रास्ता साफ हो सके. इसके दो दिन बाद ही शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा कर दिया गया. महाराजा हरी सिंह अब भी आजाद कश्मीर का सपना पाले हुए थे. 12 अक्टूबर को उनके उप-प्रधानमंत्री ने दिल्ली में कहा, ‘हमारा भारत या पाकिस्तान में शामिल होने का कोई इरादा नहीं है. सिर्फ एक ही चीज़ हमारी राय बदल सकती है और वो ये कि अगर दोनों देशों में से कोई हमारे खिलाफ शक्ति का इस्तेमाल करता है तो हम अपनी राय पर पुनर्विचार करेंगे. महाराजा ने मुझे कहा है कि उनकी महत्वाकांक्षा, कश्मीर को पूर्व का स्विट्ज़रलैंड बनाने की है. एक ऐसा मुल्क जो बिलकुल निरपेक्ष होगा.’

किसी देश द्वारा शक्ति प्रदर्शन की जो बात उप-प्रधानमंत्री ने कही थी वह दो हफ़्तों के भीतर ही हकीकत में बदल गई. 22 अक्टूबर को हजारों हथियारबंद लोग कश्मीर में दाखिल हो गए और तेजी से राजधानी श्रीनगर की तरफ बढ़ने लगे. इन्हें कबायली हमलावर कहा जाता है. यह एक खुला रहस्य है कि इन्हें पाकिस्तान का समर्थन मिला हुआ था. कश्मीर के पुंछ इलाके में राजा के शासन के प्रति पहले से ही काफी असंतोष था. लिहाजा इस इलाके के कई लोग भी उनके साथ मिल गए. 24 अक्टूबर को जब ये लोग बारामूला की राह पर थे तो महाराजा हरी सिंह ने भारत सरकार से सैन्य मदद मांगी. अगली ही सुबह वीपी मेनन को हालात का जायजा लेने दिल्ली से कश्मीर रवाना किया गया. मेनन सरदार पटेल के नेतृत्व वाले राज्यों के मंत्रालय के सचिव थे. वे जब महाराजा से श्रीनगर में मिले तब तक हमलावर बारामूला पहुंच चुके थे. ऐसे में उन्होंने महाराजा को तुरंत जम्मू रवाना हो जाने को कहा और वे खुद कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन को साथ लेकर दिल्ली लौट आए.

अब स्थिति ऐसी बन चुकी थी कि कश्मीर की राजधानी पर कभी भी हमलावरों का कब्ज़ा हो सकता था. महाराजा हरी सिंह भारत से मदद की उम्मीद लगाए बैठे थे. ऐसे में लार्ड माउंटबेटन ने सलाह दी कि कश्मीर में भारतीय फ़ौज को भेजने से पहले हरी सिंह से ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर करवाना बेहतर है. मेनन को एक बार फिर से जम्मू रवाना किया गया. 26 अक्टूबर को मेनन ने महाराजा हरी सिंह से ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर करवाए और उसे लेकर वे तुरंत ही दिल्ली वापस लौट आए. अगली सुबह सूरज की पहली किरण के साथ ही भारतीय फ़ौज कश्मीर के लिए रवाना हो गई. इसी दिन 28 विमान भी कश्मीर के लिए रवाना हुए. अगले कुछ दिनों में सैकड़ों बार विमानों को दिल्ली से कश्मीर भेजा गया और कुछ ही दिनों में पाकिस्तान समर्थित कबायली हमलावरों और विद्रोहियों को खदेड़ दिया गया.
         इसके साथ ही कश्मीर पर भारत का औपचारिक, व्यवहारिक और आधिकारिक कब्ज़ा हो गया. लेकिन कुछ चीज़ें अब भी अनसुलझी थी. ये अनसुलझी चीज़ें ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन’ नहीं बल्कि वे औपचारिकताएं थीं जो अन्य रियासतों में पूरी की जा चुकी थीं लेकिन कश्मीर में अधूरी रह गई थीं. ये जानकारी कई लोगों को हैरान कर सकती है कि भारत ने कश्मीर के राजा हरी सिंह के साथ जो ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन’ साइन किया था, वह अक्षरशः वैसा ही था जैसा मैसूर, टिहरी गढ़वाल या किसी भी अन्य रियासत के साथ साइन किया गया था. लेकिन जहां बाकी रियासतों के साथ बाद में ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ मर्जर’ साइन किये गए, वहीँ कश्मीर के साथ भारत के संबंध उलझते चले गए. इन संबंधों के उलझने की एक बड़ी वजह थी कश्मीर में जनमत संग्रह का वह वादा जिसकी पेशकश लार्ड माउंटबेटन ने की थी और जिसे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने बाकायदा आल इंडिया रेडियो से घोषित किया था.

पंडित नेहरु चाहते थे कि कश्मीर मुद्दे को जल्द-से-जल्द सुलझा लिया जाए. उन्होंने इसके लिए कई विकल्प सुझाए थे. ये विकल्प थे:

1. पूरे राज्य में जनमत संग्रह किया जाए ताकि लोग तय कर सकें कि वे किस देश में शामिल होना चाहते हैं.
 2. कश्मीर एक आजाद राज्य के रूप में काम करे जिसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत और पाकिस्तान मिलकर लें.

3. राज्य का विभाजन इस तरह से कर दिया जाए कि जम्मू भारत को मिले और बाकी राज्य पाकिस्तान को.

4. राज्य का विभाजन इस तरह से हो कि जम्मू के साथ कश्मीर घाटी भी भारत में रहे जबकि पुंछ और उसके बाद का इलाका पाकिस्तान को दे दिया जाए.

पंडित नेहरु सबसे ज्यादा इस चौथे विकल्प के पक्ष में थे. वे जानते थे कि उस दौरान पुंछ की अधिकांश आबादी भारतीय संघ के खिलाफ थी जबकि बाकी की घाटी नेशनल कॉफ्रेंस का गढ़ थी जहां लोग भारत के पक्ष में झुकाव रखते थे. पंडित नेहरु ने महाराज हरी सिंह को इसी दौरान एक पत्र भी लिखा था जिसमें लिखी बातें आज बहुत हद तक सही साबित होती नज़र आ रही हैं. इस पत्र में उन्होंने लिखा था, ‘भारत के दृष्टिकोण से यह सबसे महत्वपूर्ण है कि कश्मीर भारत में ही रहे. लेकिन हम अपनी तरफ से कितना भी ऐसा क्यों न चाहें, ऐसा तब तक नहीं हो सकता जब तक कि कश्मीर के आम लोग यह नहीं चाहते. अगर यह मान भी लिया जाए कि कश्मीर को सैन्यबल के सहारे कुछ समय तक अधिकार में रख भी लिया जाए, लेकिन बाद में इसका नतीजा यह होगा कि इसके खिलाफ मजबूत प्रतिरोध जन्म लेगा. इसलिए, जरूरी रूप से यह कश्मीर के आम लोगों तक पहुंचने और उन्हें यह एहसास दिलाने की एक मनोवैज्ञानिक समस्या है कि भारत में रहकर वे फायदे में रहेंगे. अगर एक औसत मुसलमान सोचता है कि वह भारतीय संघ में सुरक्षित नहीं रहेगा, तो स्वाभाविक तौर पर वह कहीं और देखेगा. हमारी आधारभूत नीति इस बात से निर्देशित होनी चाहिए, नहीं तो हम यहां नाकामयाब हो जाएंगे.’
       एक जनवरी 1948 को भारत ने कश्मीर के सवाल को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने का फैसला किया. ऐसा लार्ड माउंटबेटन की सलाह पर किया गया. उनका मानना था कि चूंकि कश्मीर का भारत में विलय हो चुका है लिहाजा संयुक्त राष्ट्र कश्मीर के उत्तरी इलाके को मुक्त कराने में मदद करे जो कि पाकिस्तान समर्थक गुट के कब्ज़े में चला गया था. संयुक्त राष्ट्र में पकिस्तान की तरफ से जफरुल्ला खान ने इस मुद्दे में पैरवी की. वहां भारत की तुलना में खान ने कहीं बेहतर तरीके से अपना पक्ष रखा और वे संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधियों को यह भरोसा दिलाने में सफल हो गए कि कश्मीर पर हमला बंटवारे के दौरान उत्तर भारत में हुए सांप्रदायिक दंगों का नतीजा था. यह मुसलमानों द्वारा अपने समुदाय के लोगों की तकलीफों के चलते हुई एक ‘स्वाभाविक प्रतिक्रिया’ थी. इस तरह उन्होंने कश्मीर को ‘बंटवारे की अधूरी प्रक्रिया’ के तौर पर पेश किया. इसका इतना प्रभाव हुआ कि सुरक्षा परिषद् ने इस मामले का शीर्षक ‘जम्मू-कश्मीर प्रश्न’ से बदलकर ‘भारत-पाकिस्तान प्रश्न’ कर दिया.

इस तरह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की कश्मीर पर पकड़ थोड़ी कमज़ोर हो गई. दूसरी तरफ तब से आज तक कश्मीर घाटी में भारत स्थानीय लोगों को विश्वास में लेने में भी सफल नहीं हो सका. 70 साल पहले, 26 अक्टूबर 1947 की रात कश्मीर की समस्या महाराजा हरी सिंह की उस चिंता से शुरू हुई थी कि ‘जाने अगली सुबह भारतीय फ़ौज कश्मीर आएगी या नहीं’, अब 72 साल बाद यह समस्या कई स्थानीय लोगों की चिंता बन चुकी है कि ‘जाने भारतीय फ़ौज कभी कश्मीर से जाएगी या नहीं.’

(इस लेख के ज्यादातर तथ्य इतिहासकार रामचंद्र गुहा की प्रसिद्ध किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ पर आधारित हैं.)
         और इतिहास को अपने हिसाब से बनाने वाले आज के सत्ता आसीन ये नेतागण सिवाय हमारे महापुरुषों के अपमान के और किसी राह पर नहीं चल रहे हैं. कभी अपने मन की बात सरदार पटेल की कह देते हैं तो कभी स्वामी विवेकानंद को मोहरा बना लेते हैं, कभी सुभाष चंद्र बोस को लेकर नेहरू को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं तो कभी शास्त्री जी की मृत्यु को मुद्दा बना नेहरू की बेटी को घेर नेहरू गाँधी परिवार की राष्ट्र के प्रति निष्ठा में अविश्वास के बीज़ बोये जाते हैं और इन्हें नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है जबकि बात बात में स्वामी विवेकानंद जी के आदर्शों पर चलने का दावा करने वाले ये मगरमच्छ नहीं जानते कि उनका कहना था कि पुरानी लकीर को मिटाने से वह छोटी नहीं होगी बल्कि उसके बराबर में बड़ी लकीर खींचने से वह छोटी होगी, ऐसे में नेहरू जी को अगर छोटा दिखाना है तो उनसे बड़े काम करके दिखाने होंगे न कि उन्हें बदनाम कर लोगों के दिलों से गिराने की साजिश, क्योंकि ऐसे में तो सब यही कहते नज़र आयेंगे कि कुछ तो बात होगी नेहरू में जो इनकी जुबां से उनका नाम हटता ही नहीं.
शालिनी कौशिक एडवोकेट
(कौशल) 

टिप्पणियाँ

अजय कुमार झा ने कहा…
इतिहास को अपने हिसाब से बनाने वाले।।।।।और उसे अपने स्वार्थ और नज़रिये से आगे परोसते जाने वाले भी | बहुत सी जानकारियां मेरे लिए नई थीं मगर हमेशा की तरह एक पक्षीय और पूर्वाग्रह से ग्रस्त भी

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