बनके ज़हर जो जिंदगी जीने नहीं देती.
मायूसियाँ इन्सान को रहने नहीं देती,
बनके ज़हर जो जिंदगी जीने नहीं देती.
जी लेता है इन्सान गर्दिशी हज़ार पल,
एक पल भी हमको साँस ये लेने नहीं देती.
भूली हुई यादों के सहारे रहें गर हम,
ये जिंदगी राहत से गुजरने नहीं देती.
जीने के लिए चाहियें दो प्यार भरे दिल,
दीवार बनके ये उन्हें मिलने नहीं देती.
बैठे हैं इंतजार में वो मौत के अगर,
आगोश में लेती उन्हें बचने नहीं देती.
शालिनी कौशिक
टिप्पणियाँ
bahut acchi post
शुक्रिया !
bahut sundar nazm,badhai
ये जिंदगी राहत से गुजरने नहीं देती.
shalini kaushik ji bahut hi gehari se likha hai aapne...sach me bahut sahi kaha hai aapne.bahut sunderta se dhala hai aapne apne jajbat ko.waah
लेखों में पुरस्कार जितने वाले
लोग इधर भी हाथ आजमाने लग पड़े हैं |
मैं तो अभी क्या बोलते हैं,
काफिया और न जाने क्या-क्या,
का नाम याद करने में ही लगा हूँ --
और ये शुद्ध लेखक लोग
गजल पर गजल छपे जा रहे हैं --
शायरों की खैर नहीं बाबा --
ये जिंदगी राहत से गुजरने नहीं देती.
कैद-ए-हयात का चित्रण.
बनके ज़हर जो जिंदगी जीने नहीं देती.
जी लेता है इन्सान गर्दिशी हज़ार पल,
एक पल भी हमको साँस ये लेने नहीं देती.
Bahut Badhiya....
बनके ज़हर जो जिंदगी जीने नहीं देती.
पहली दोनों पंक्तियाँ खूबसूरत ....
जी लेता है इन्सान गर्दिशी हज़ार पल,एक पल भी हमको साँस ये लेने नहीं देती.
सुंदर कोमल और बेहद खूबसूरत
दीवार बनके ये उन्हें मिलने नहीं देती .
बहुत खूब !
ये जुबां हमसे सी नहीं जाती ,
ज़िन्दगी है के जी नहीं जाती .
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
दीवार बनके ये उन्हें मिलने नहीं देती.
वाह! वाह!!
बहुत अच्छी ग़ज़ल।
जिन्दगी को जी गया |
मौत को करीब से देखा |
तुझे को नसीब से देखा |