भौतिकवादी भारतीय परम्परावादी नाटक के पात्र .

भारतीय परम्पराओं के मानने वाले हैं ,ये सदियों से चली आ रही रूढ़ियों में विश्वास करते हैं और अपने को लाख परेशानी होने के बावजूद उन्हें निभाते हैं ये सब पुराने बातें हैं क्योंकि अब भारतीय तरक्की कर रहे हैं और उस तरक्की का जो असर हमारी परम्पराओं के सुन्दर स्वरुप पर पड़ रहा है वह और कहीं नहीं क्योंकि एक सच्चाई ये भी है कि अवसरवाद और स्वार्थ भी हम सबमे कूट कूटकर भरा हुआ है और हम अपने को फायदा कहाँ है बहुत जल्दी जान लेते हैं और वही करते हैं जिसमे फायदा हो .
भारत में विशेषकर हिंदुओं में हर व्यक्ति के जीवन में १६ संस्कारों को स्थान दिया गया है इसमें से और कोई संस्कार किसी का हो या न हो और लड़कियों का तो होता ही केवल एक संस्कार है वह है विवाह जो लगभग सभी का होता है तो इसमें ही मुख्य रूप से परिवर्तन हम ध्यान पूर्वक कह सकते हैं कि निरंतर अपनी सुविधा को देखते हुए लाये जा रहे हैं और ये वे परिवर्तन हैं जिन्होंने इस संस्कार का स्वरुप मूल रूप से बदलकर डाल दिया है और ये भी साफ़ है कि इस सबके पीछे हम हिंदुओं की अपनी सुविधा और स्वार्थ है .परिवर्तन अब देखिये क्या क्या हो गए हैं -
* पहले विवाह में रोज-रोज घर की औरतें कई दिनों से गीत किया करती थी आज समय के अभाव ने सब ख़त्म कर दिया है और रतजगा जो कि फिल्मों तक में प्रचलित था आज समाज से समाप्त हो चूका है नाचना गाना है पर सब कान फोडूं स्टाईल में ,एक दिन महिला संगीत का आयोजन किया जाता है और उसमे महिला तो महिला पुरुष भी भली भांति जुटे रहते हैं और ऐसा आयोजन होता है जो न केवल बहुत उत्साह दर्शाता है बल्कि पूरे मोहल्ले का चैन हराम करा जाता है और वह होता है डी.जे.आयोजन .कान फोडूं इस आयोजन ने विवाह को एक सिर फोडूं आयोजन में परिवर्तित कर दिया है .
* पहले ये था कि कंगना बांधने के बाद दूल्हा -दुल्हन बनने वाले लड़का लड़की कहीं आते जाते नहीं थे क्योंकि ये आशंका रहती थी कि कोई बुरी आत्मा उन पर असर कर जायेगी किन्तु अब तो लोगों के दिमाग बदल चुके हैं और लड़का तो लड़का लड़की भी कहीं कहीं फिरते नज़र आते हैं मुख्यतया ब्यूटी पार्लर क्योंकि कुछ भी हो पर सुन्दर तो दिखना ज़रूरी है .
*पहले लड़के के ब्याह में माँ नहीं जाती थी किन्तु समय बदला और लोगों के दिमाग भी कि आखिर माँ को इस आयोजन से क्यूँ वंचित रखा जाये जैसे वहाँ जाकर ही वह अपने लड़के की ख़ुशी में शामिल हो सकती है जबकि माँ यदि वहाँ नहीं जाती थी तो इसके पीछे एक मुख्य कारण ये था कि वह उसके पीछे कुछ अन्य रीति रिवाज़ों को यहाँ पूरा करती थी और विवाह का घर सूना रहना भी अच्छा नहीं माना जाता किन्तु अब ये भी होने लगा है .
*लड़की के ब्याह को घर की चौखट का पूजन माना जाता था किन्तु अब नहीं क्योंकि अब ये काम अधिकतर लड़की वाले लड़के वालों की इच्छा पर और स्वयं के काम भी कम करने की इच्छा पर घर से कहीं दूसरे शहर में या फिर लड़के वालों के शहर में करने लगे हैं इसलिए अब चौखट का पूजन भी समाप्त और ये भी कि फेरों के समय जो दिए जलाये जाते थे वे भी होटल या विवाह मंडप वालों द्वारा अति शीघ्र निपटान की कार्यवाही में समाप्त .*विवाह के पश्चात् विदाई होती है और उसके बाद लड़की एक दिन बाद अपने घर आती थी इसके पीछे का उद्देशय उसके नए घर के बारे में भी जानना होता था वहाँ उसकी कुशल क्षेम के बारे में जानना होता था किन्तु अब सब ख़त्म अब विवाह के बाद विदाई का नाटक फिर तभी उसके आने का नाटक और फिर उसका अपनी ससुराल जाना और वहाँ से उसकी दिन हनीमून को प्रस्थान जिसके कारण ये सब नाटकीय आयोजन .
अब कुछ नहीं रह गया है बस नाटक नाटक और सिर्फ नाटक और ये सब किसलिए वह भी धन दौलत लूटने के लिए कहाँ तो एक तरफ वैवाहिक विज्ञापन में लड़की की सुंदरता मायने रखती है और कहाँ लड़की चाहे लूली हो लंगड़ी हो बीमार हो काली हो भैंस हो सब चलती है मात्र इसलिए कि वह दौलत से घर भर देगी .
अब जिस तरह सब टूटता जा रहा है वह दिन दूर नहीं जब लड़की बारात लाएगी और लड़का ले जायेगी और इससे बढ़कर भी हो सकता है कि विवाह की रस्मे ख़त्म ही हो जाएँ और हमारे समाज में मात्र लिव इन रिलेशन ही रह जाये .
शालिनी कौशिक
[कौशल ]

टिप्पणियाँ

Ramakant Singh ने कहा…
परम्परा का लेख
सुन्दर प्रस्तुति।
आज 11-12-13 का सुखद संयोंग है।
सुप्रभात...।
आपका बुधवार मंगलकारी हो।
सुन्दर आलेख, परम्पराओं की वैज्ञानिकता और मर्म को समझना होगा।

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