पुरुष रुपी बल्ले पर नारी गेंद बन पड़ी ,


आज की सच्चाइयाँ कुबूल कीजिये सभी ,
भुगत रहा इंसान है रोज़-रोज़ नहीं कभी .
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नारी को है नारी से ईर्ष्या डाह द्वेष
नारी रोके नारी की उन्नति राहें सभी ,
अपने से आगे किसी को ये करे नहीं पसंद
बढ़ चले अगर कोई ,सुलगे चिंगारी दबी .
खुद यदि है शादमा रखे खुश सबको तभी
भुगत रहा इंसान है रोज़-रोज़ नहीं कभी .
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पर पुरुष की असलियत इससे भी है भयावह
डर है अपनी जात से जिसमे वासना भरी ,
वहशी बनके कर रहा है पुरुष ही दरिंदगी
कैसे ऐसी नज़र से बचाये अपना घर अभी .
पुरुष ही पुरुष से बचके भागता फिरे,
भुगत रहा इंसान है रोज़-रोज़ नहीं कभी .
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नारी अपनी रंजिशों को खुद से ही संभालती
पुरुष बनता दुश्मनी में इसको ही अपनी छुरी ,
पुरुष बनाके खेल इसकी ज़िंदगी से खेलता
खिलौना बनती नारी खुद ही दासी बन इसकी पड़ी .
पुरुष रुपी बल्ले पर नारी गेंद बन पड़ी ,
भुगत रहा इंसान है रोज़-रोज़ नहीं कभी .
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शालिनी कौशिक
  [कौशल ]

टिप्पणियाँ

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (16-05-2014) को "मित्र वही जो बने सहायक"(चर्चा मंच-1614) में अद्यतन लिंक पर भी है!
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मातृदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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