खुलासा अपनी हसरत का ,है भाया कब मुखालिफ को .


ज़रा सा मुंह मैंने खोला,लगी बर-बर मुखालिफ को ,
आईना रख दिया आगे ,आ गया गश मुखालिफ को .
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अभी तक मेरी आवाज़ें ,थी चाहत जिनकी सुनने की ,
गिरी हैं बिजलियाँ उन पर ,कहा जो सच मुखालिफ को .
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कभी कहकर के कठपुतली ,कभी मौनी बाबा कहकर ,
उड़ाते हैं मेरी खिल्ली ,याद क्या सब मुखालिफ को .
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चुभे हैं मुझको जो नश्तर ,उन्हीं का है असर देखो ,
विवश होकर ज़हर पीकर ,कहा सब कुछ मुखालिफ को .
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ये दिल से चाहे दुनिया में ,ज़ुदा इंसान की राहें ,
खुलासा अपनी हसरत का ,है भाया कब मुखालिफ को .
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संभाला मुल्क है हमने ,कभी तन्हा कभी मिलकर ,
भरोसा जिसपर जनता का ,उसी पर शक़ मुखालिफ को .
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साज़िशी फितरतें रखकर ,लगाएं ज़िंदगी में आग ,
''शालिनी ''भी दहल उठती ,देखकर इस मुखालिफ को .
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शालिनी कौशिक
[कौशल ]

टिप्पणियाँ

Dr. sandhya tiwari ने कहा…
बहुत सुन्दर .............
बेनामी ने कहा…
बहुत खूब
sube singh sujan ने कहा…
शालिनी जी, आपके विचार प्रखर हैं। लेकिन ग़ज़ल विधा में आपने लिखने का प्रयास किया है जो कि बहर में नहीं है। कृपया ग़ज़ल को सीख कर छन्दों में ही लिखें।
sube singh sujan ने कहा…
शालिनी जी, आपके विचार प्रखर हैं। लेकिन ग़ज़ल विधा में आपने लिखने का प्रयास किया है जो कि बहर में नहीं है। कृपया ग़ज़ल को सीख कर छन्दों में ही लिखें।

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