महबूबा यहाँ सबकी बस कुर्सी सियासत की ,


फुरसत में तुम्हारा ही दीदार करते हैं ,
खुद से भी ज्यादा तुमको हम प्यार करते हैं। 

 अपनों से ज़ुदा होने की फ़िक्र है नहीं ,
तुम पर ही जान अपनी निसार करते हैं। 

झुकती हमारी गर्दन तेरे ही दर पे आकर ,
हम तेरे आगे सिज़दा बार -बार करते हैं। 

ये ज़िंदगी है कितनी हमको खबर नहीं है ,
पलकें बिछाके फिर भी इंतज़ार करते हैं। 

बालों में है सफेदी ,न मुंह में दाँत कोई ,
खुद को तेरी कशिश में तैयार करते हैं। 

महबूबा यहाँ सबकी बस कुर्सी सियासत की ,
पाने को धक्का -मुक्की और वार करते हैं। 

''शालिनी ''देखती है देखे अवाम सारी ,
बहरूपिये बन -ठन कर इज़हार करते हैं। 

शालिनी कौशिक 
    [कौशल ]

टिप्पणियाँ

yashoda Agrawal ने कहा…
आपकी लिखी रचना शनिवार 29 मार्च 2014 को लिंक की जाएगी...............
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
yashoda Agrawal ने कहा…
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आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
Anita ने कहा…
कुर्सी का आकर्षण जो न कराए..
बहुत अच्छी प्रस्तुति !
बहुत अच्छी प्रस्तुति !
बहुत अच्छी प्रस्तुति !
बहुत अच्छी प्रस्तुति !
कौशल लाल ने कहा…
बहुत सुन्दर......

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