औलाद की माँ-बाप से न प्रीत चली है .

उलटी ही ज़माने की यहाँ रीत चली है ,
औलाद की माँ-बाप से न प्रीत चली है .
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करनी पड़ें जब खिदमतें माँ-बाप की अपने ,
झगड़ों की रेल घर में देखो खूब चली है .
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औलाद पर लुटाते ये अपनी दौलतें ,
उनके लिए तो मालगाड़ी तेज़ चली है .
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हमारे काम करना ही फ़र्ज़ बड़ों का ,
बच्चों पे हमारी न कभी एक चली है .
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जब देखा न बच्चों ने घर में बड़ों का आदर ,
उन पर न बड़ों की कभी भी सीख चली है .
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आदर्शों को पटरी से हमने ही है उतारा,
उतरी जो पटरियों से न वो रेल चली है .
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''शालिनी''कहे खुद को तुम आईने में देखो ,
तुमने भी खुद बड़ों पर ये चाल चली है .
शालिनी कौशिक
[कौशल ]

टिप्पणियाँ

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (07-10-2013) नवरात्र गुज़ारिश : चर्चामंच 1391 में "मयंक का कोना" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का उपयोग किसी पत्रिका में किया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
virendra sharma ने कहा…
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जब देखा न बच्चों ने घर में बड़ों का आदर ,
उन पर न बड़ों की कभी भी सीख चली है .
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आदर्शों को पटरी से हमने ही है उतारा,
उतरी जो पटरियों से न वो रेल चली है .

बहुत सशक्त रचना -कर्तम सो भोगतम ,

करम प्रधान विश्व करि राखा ,

जो जस करइ सो तस फल चाखा।
virendra sharma ने कहा…
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जब देखा न बच्चों ने घर में बड़ों का आदर ,
उन पर न बड़ों की कभी भी सीख चली है .
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आदर्शों को पटरी से हमने ही है उतारा,
उतरी जो पटरियों से न वो रेल चली है .

बहुत सशक्त रचना -कर्तम सो भोगतम ,

करम प्रधान विश्व करि राखा ,

जो जस करइ सो तस फल चाखा।
समाज इतना भी बुरा नहीं है...जितना कभी कभी लगता है......हकीकत लिखा है आपने बेहद खूबसूरती के साथ .......आभार
Parul Chandra ने कहा…
दुखद है पर सत्य भी है। अच्छी रचना शालिनी जी
उलटी ही ज़माने की यहाँ रीत चली है ,
औलाद की माँ-बाप से न प्रीत चली है ...

आज का दौर है ... तेज़ी का दौर .. माँ बाप की रफ़्तार धीमी है आज के युवा वर्ग के लिए ..

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