मेरी माँ - मेरा सर्वस्व
वो चेहरा जो शक्ति था मेरी , वो आवाज़ जो थी भरती ऊर्जा मुझमें , वो ऊँगली जो बढ़ी थी थाम आगे मैं , वो कदम जो साथ रहते थे हरदम, वो आँखें जो दिखाती रोशनी मुझको , वो चेहरा ख़ुशी में मेरी हँसता था , वो चेहरा दुखों में मेरे रोता था , वो आवाज़ सही बातें ही बतलाती , वो आवाज़ गलत करने पर धमकाती , वो ऊँगली बढाती कर्तव्य-पथ पर , वो ऊँगली भटकने से थी बचाती , वो कदम निष्कंटक राह बनाते , वो कदम साथ मेरे बढ़ते जाते , वो आँखें सदा थी नेह बरसाती , वो आँखें सदा हित ही मेरा चाहती , मेरे जीवन के हर पहलू संवारें जिसने बढ़ चढ़कर , चुनौती झेलने का गुर सिखाया उससे खुद लड़कर , संभलना जीवन में हरदम उन्होंने मुझको सिखलाया , सभी के काम तुम आना मदद कर खुद था दिखलाया , वो मेरे सुख थे जो सारे सभी से नाता गया है छूट , वो मेरी बगिया की माली जननी गयी हैं मुझसे रूठ , गुणों की खान माँ को मैं भला कैसे दूं श्रद्धांजली , ह्रदय की वेदना में बंध कलम आगे न अब चली . शालिनी कौशिक [कौशल ]
टिप्पणियाँ
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का उपयोग किसी पत्रिका में किया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
RECENT POST : - एक जबाब माँगा था.
अभी अभी महिषासुर बध (भाग -१ )!
बंदिश तो शायद आयद न हो पाए लेकिन जन शिक्षण ज़रूरी है। क्या गंगा में नहाने से पाप कटते हैं। ये सवाल जगद्गुरुकृपालु महराज जी से काशी की विद्वत परिषद् ने पूछा था -उनका उत्तर इस प्राकर था -
एक बोतल में पेशाब (मूत्र )भरके ,ढक्कन लगाके उसे गंगा में एक माह पड़ा रहने दो। क्या अब यह पवित्र हो जायेगी। भाव यहाँ यह है जब तक अन्दर की गंदगी (विकार )दूर नहीं होंगें बाहर के कर्म काण्ड से शरीर की यात्रा से कुछ होने वाला नहीं है। फिर चाहे वह कुम्भ स्नान हो या कांवड़ियों का रेला।
एक बोतल में पेशाब (मूत्र )भरके ,ढक्कन लगाके उसे गंगा में एक माह पड़ा रहने दो। क्या अब यह पवित्र हो जायेगी। भाव यहाँ यह है जब तक अन्दर की गंदगी (विकार )दूर नहीं होंगें बाहर के कर्म काण्ड से शरीर की यात्रा से कुछ होने वाला नहीं है। फिर चाहे वह कुम्भ स्नान हो या कांवड़ियों का रेला।
ऐसी आस्था किस काम की
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